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किरण ६ ]
ममन्तभद्र-भारती के कुछ नमूने
स्वया धीमन् ब्रह्मप्रणिधिमनसा जन्म-निगलं, समूलं निर्भिन्नं त्वमसि विदुर्षा मोक्षपदवी । स्वपि ज्ञानज्योतिर्विभवकिरणैर्भाति भगवन् अभूवन खद्योता इव शुचिग्वावन्यमतयः ॥ २ ॥
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'हे बुद्धि ऋद्धिसम्पन्न भगवन ! आपने परमात्म ( शुद्धात्म) - स्वरूप में चित्तको एकाग्र करके पुनर्जन्म के बन्धनको उपके मूलकारण सहित नष्ट किया है, अतएव आप विद्वज्जनोंक लिए मोक्षमार्ग अथवा मोक्षस्थान हैं - आपको प्राप्त होकर विवेकीजन अपना मोक्षसाधन करनेमें समर्थ होते हैं। आपमें विभव (समर्थ) किरणों के साथ केवलज्ञानज्योतिके प्रकाशित होने पर अन्यमती -- एकान्तवादी - जन उसी प्रकार हतप्रभ हुए हैं जिस प्रकार कि निर्मल सूर्य के सामने खद्योत (जुगनू ) होते हैं ।'
विधेयं वार्य चानुभयमुभयं मिश्रमपि तद्विशेषैः प्रत्येकं नियमविषयैश्चापरिमितैः । सदाऽन्योन्यापेक्षैः सकलभुवन ज्येष्ठगुरुणा, स्वया गीतं तत्त्वं बहुनयविवक्षेतरवशात् ॥ ३ ॥
'हे संपूर्ण जगत के महान गुरु श्रीनमिजिन ! आपने वस्तुतत्वको बहुत नयोंकी विवक्षा अविक्षाके वशसे विधेय, वार्य ( प्रतिषेध्य ) उभय, अनुभय तथा मिश्रभंग - विधेयाऽनुभय, प्रतिषेध्याऽनुभय और उभयाअनुभव (ऐसे मतभंग ) रूप निर्दिष्ट किया है। साथ ही अपरिमित विशेषों (धर्मों) का कथन किया है जिनमें से एक एक विशेष सदा एक दूसरेकी अपेक्षाको लिये रहता है और सप्तभंगके नियमको अपना विषय किये रहता है— कोई भी विशेष अथवा धर्म सर्वथा एक दूसरेकी अपेक्षा से रहित कभी नहीं होता और न सप्तभंग के नियम से बहिर्भूत ही होता है।'
अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं, न सा तत्रारम्भोऽस्स्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ । ततस्तस्सिद्धयर्थं परमकरुणो ग्रन्थमुभर्य, भवानेवात्यादीन्न
च विकृतवेषोपघिरतः ॥ ४ ॥
'प्राणियोंकी
हिंसा जगतमें परमब्रह्म-ग्रत्युच्च कोटिकी श्रात्मचर्या - जानी गई है और वह श्रहिंसा उस आश्रमविधि में नहीं बनती जिस श्रश्रमविधिमें अणुमात्र - थोड़ा सा भी आरम्भ होता है । अतः उस अहिंसा परमब्रह्मकी सिद्धिके लिए परमकरुणाभावसे सम्पन्न आपने ही बाह्याभ्यन्तर रूपसे उभय-प्रकारके परिग्रहको छोड़ा है - बाह्यमें वस्त्रालंकारादिक उपधियोंका और अन्तरंग में रागादिकभावोंका त्याग किया हैफलतः परमब्रह्मकी सिद्धिको प्राप्त किया है। किन्तु जो विकृतवेष और उपधिमें रत हैं- यथाजातलि विरोधी जटा मुकुट धारण तथा भस्मोद्धूलनादिरूप वेष श्रौर वस्त्र, श्राभूषण, अक्षमाला तथा मृगचर्मादिरून उपधियोंमें श्रासक्त है— उन्होंने उस बाह्याभ्यन्तर परिग्रहको नहीं छोड़ा है। और इस लिए ऐसोंसे उस परमब्रह्मकी सिद्धि भी नहीं बन सकी है।'