Book Title: Anekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 323
________________ २८ अनेकान्त [ वर्ष ६ में कर्मणा वर्णव्यवस्था स्वीकार की गई है अत: इपके तचक्रवर्ती धवलाके उक्त लक्षासे कुछ अपरिचित थे यह अनुसार अनार्य भी भार्य और मार्य भी अनार्य हो सकते बात नहीं है। फिर भी उन्होंने गोत्रके सामान्य लक्षणमें है। यही इन परम्पराभोंकी विशेषता है। जैसा कि भगव- परिवर्तन किया है। यद्यपि यह परिवर्तन उन्होंने धवलामें जिनसेनके निम्न वाक्यसे भी प्रकट -- पाये हुए उच्चगोत्रके लक्षणको देखकर किया है फिर भी स्वदशऽनक्षरम्लेच्छान् प्रजाबाधाविधायिनः। इससे स्थितिमें बड़ा अन्तर पर गया है । धवलाके अनुकुलशुद्धिप्रदानाद्यः स्वसाकुर्यादुपक्रमैः ॥ सार जब कि प्राचार वालोंकी परम्परा गोत्र शब्दका अर्थात्-अपने देशमें जो प्रजाको बाधा देनेवाले वाच्यार्थ होता है तो कर्मकाण्डके अनुसार कुलक्रमसे माया अनारम्लेच्छ हों उनकी कुलशुद्धि करके उन्हें अपने प्राधीन हुथा प्राचार गोत्र शब्दका वाच्यार्थ होता है । इस प्रकार करे। एक जगह परम्परा मुख्य रही जो कि गोत्रकी प्रात्मा है दीवायोग्य साधु प्राचारके सम्बन्धमें सांगारधर्मामृतमें और दूसरी जगह प्राचार मुख्य हो गया जो कि चारित्रलिखा है मोहनीयके उदयादिका कार्य है। इस परिवर्तनसे जो दूसरा यऽप्यूत्पद्यकुहक्कुल विधिवशाहीक्षोचिते स्वं गुणः। दोष पैदा हया वह यह है कि इससे कर्मणा वर्ण के स्थान विद्याशिल्पांवमुक्तवृत्तिनि पुनन्त्यन्वीरते तेऽपि तान।। में जन्मना चौकी पुष्टि हुई। अनेक जानियों और उप "टाका-xx किं विशिष्टिते, दीक्षाचिते । दीक्षा जानियों और तद्गत अवान्तर श्राचारोंसे चिपके रहना भी व्रताविष्करणं व्रतान्मुखस्य वृत्तिरिति यावत् । स इसका फल है। श्रागममें उचगोत्रके उदय और उदारणा चात्रोंपासकदीक्षाजिनमुद्रा वा उपनात्यादिसंस्कारो वा। को जो गुणप्रत्यय कहा है उसका यहां कोई स्थान न रहा। पुनः किं विशिष्ट विद्याशिल्पविमुक्तवृत्तिनि । विद्यात्रा- यहां गुणसे सकल संयम और संयमासंयमका ग्रहण किया जीवनार्थ गीतादिशास्त्र शिल्पं कारुकर्म नाभ्यां है। इसका यह तात्पर्य है कि कोई नीचगोत्री यदि सकल विमुक्ता तताऽन्या वृत्तिर्वार्ता कृष्यादिलक्षणां जीवनी- संयमको धारण करता है तो वह नियममे उरचगोत्री हो पायो यत्र तस्मिन। जाता है तथा यदि कोई नीचगोत्री मनुष्य संयमासंयमको इसका भाव यह है कि जिम कुलमें विद्यावृत्ति-नाच- धारण करता है तो उसके भी उरचगोत्रका उदय होना गानसे माजीविका और शिल्पकम नहीं होता वह कुल सम्भव है। अब जब कि हम कुलधर्मको ही गोत्र मान दीक्षोचित माना गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि वीरसेन लेते हैं और उच्चकुलधर्मके अनुसार उपगोत्रकी तथा स्वामीने भाचारके पहले दीक्षायोग्य साधु' यह विशेषण नीचकुलधर्मके अनुसार नीचगोत्रकी व्यवस्था करते हैं तो लगाकर इस प्रकारकं प्राचारका निषेध किया है। संयमासंयम या संयमको ग्रहण करते समय नीच गोत्रसे संताणकमेणामयजीवायरणस्म गोर्दादि सरणा। उचगोत्र कैसे होगा क्योंकि कुलधर्मके अनुसार तो जन्मना उच्च णीचं चरणं उछ णीचं हवे गोदं ॥ १३ ॥ ही उच्च और नीचगोत्र होगा और वह पर्याय भर कायम अर्थात्-सन्तान कमसे पाये हुए जीवके आचरमको रहेगा। पर बागमग्रन्थ ऐसा नहीं कहते । इसका सबत गोत्र कहते हैं। इसमें उसमाचरणको उच्च गोत्र और यही है कि भागममें उरच गोत्रको गुणप्रत्यय भी माना है नीच पाचरणको नीचगोत्र कहते हैं। और गुणासे संयम या संयमासंयम लिये गये हैं। पर अब जब हम कर्मकाण्डके इस गोत्रविषयक बक्षणका मनुश्योंके इनकी प्राप्ति माठ वर्षसे पहले होती नहीं, अत: धवनाके बचणसे मिलान करते है तो यह स्पष्ट हो जाता। सिद्ध हुमा कि एक भवमें गोत्रका परिवर्तन होता है। इस है कि कर्मकाण्डमें गोत्रका सामान्य लक्षण करते समय से मालूम होता है कि कर्मकाण्डका उक्त लक्षण धवलाकी उसमें बदल किया गया है क्योंकि धवलामें केवल सन्तान परम्पराके विरुद्ध है। बात यह है कि प्राचार उच्च, नीच को ही गोत्र कहा है जबकि कर्मकाण्डमें सन्तानक्रममे भाये गोत्रमें निमित्त हो सकता है पर वह उनका भेदक नहीं है हुए प्राचार या कुलधर्मको गोत्र कहा है। नेमिचन्द्र सिद्धा- पर कर्मकाण्डकारने भाचारको ही उच्च नीचका भेदक मान

Loading...

Page Navigation
1 ... 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436