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अनेकान्त
[वर्ष ६
सारसे भी होती है वहां लिखा है--
वहाँ कर्मभूमिको सब बातें पाई जाती हैं। यथा-(१) प्रायम्बएडावा अर्या म्लेच्छाः केचिकादयः। वहां अवमर्पिणी काल में चतुर्थकाखके प्रारम्भमे अन्त तक म्लेच्छबण्डावा म्लेच्छा अन्तरद्वीपजा अपि ।। हानि और उत्सर्पिणी कालमें तृतीय कालके प्रारम्भसे
अर्थ-जो मनुष्य भार्यखण्डमें उत्पन्न हुए हैं वे पार्य अन्त तक वृद्धि होती रहती है। ये दोनोंकाल कर्मभूमिसे हैं। तथा भार्यखण्डमें रहने वाले शक भादिक म्लेच्छ हैं। सम्बन्ध रखते हैं । (२) वहाँ विकलत्रय और अंसही जीव तथा म्लेच्छखाडोंमें उत्पन्न हुए और अन्तर्वीपज मनुष्य भी उत्स होते हैं जो कर्मभूमिमें ही पैदा होते हैं। (३) भी म्लेच्छ हैं।
वहाँ सातवें नरकके योग्य पापका संचय किया जा सकता (१) यहां पाठक यह शंका कर सकते हैं कि सर्वार्थ- है। तथा वहांसे आर्यखगडमें आकर सर्वार्थसिद्धिके योग्य सिखि भादिमें पूरे भरत आदिको कर्मभूमि कहा है और पुण्यका भी संचय किया जा सकता और वहाँ उत्पन हुमा जयभवलामें भार्य खण्डको कर्मभूमि और पांच म्लेच्छ जीव मोक्ष भी जा सकता है। (५)वहां षट्कर्मव्यवस्था खण्डोंको अकर्मभूमि कहा है, सो इसका क्या कारण है? भले हीन हो तो भी वहांके मनुष्य कृषि प्रादिसे ही
(२)दूपरी यह शंका होती है कि सर्वार्थसिद्धि मादि माना निर्वाह करते हैं। (२) यहाँके समान वहां अकाल में प्रान्तीपज और शकादिक ये दो प्रकारके ही म्लेच्छ मरण भी होता है। ये या इसी प्रकार की और भी बात हो मनुष्य बतलाये हैं और त्रिलोकप्रज्ञप्ति प्रादिमें इनसे अति- सकती है जिनसे जाना जाता है कि पांच म्लेच्छ खण्ड भी रित पांच म्लेच्छ खण्डोंके मनुष्योको भी म्लेच्छ कहा है। कर्मभूमिके भीतर हैं। इस प्रकार यह पहली शंकाका समाअतः इस कथनमें परस्पर विरोध क्यों न माना जाय? धान हमा। अब दसरी शंका पर विचार करते हैं--
पाठकोंकी ओरसे ऐसी शंकाएं होना स्वाभाविक है। (२) मार्य और अनार्य या म्लेच्छ ये भेद अधिकतर पर ये प्रश्न इतने जटित नहीं कि इनका समाधान नहीं हो षट्कर्म व्यवस्थाकी समाज रचनाका मूल आधार है। अत: सकता । भागे इमीका प्रयत्न किया जाता है
जिन्होंने इस व्यवस्थाको स्वीकार करके उसके अनुसार (१)पांच म्लेच्छ खण्डीको कर्मभूमि और अकर्मभूमि अपना वर्तन चालू कर दिया वे आर्य और जिन्होंने इम कहना मापेक्षिक वचन है। कर्मभूमि न कहनेका कारण यह व्यवस्थाको स्वीकार नहीं किया वे अनार्य या म्लेच्छ कहे है कि इनमें धर्म और कर्मकी प्रवृत्ति नहीं पाई जाती है। गये। पूज्यपाद स्वामीने कर्मभूमिज जिन म्लेच्छोंके नाम जैसा कि भगजिनसेनने भी कहा है
दिये हैं वे जातियां इसी प्रकारकी है। अभी तक वे जातिया धर्मकर्मबह ता इत्यमी म्लेच्छकाः मताः। षट्कर्म म्यवस्थाको नहीं मान रही है। भरतादि क्षेत्रोंके
इसका तात्पर्य यह है कि इन खण्डों में तीर्थंकराविका मध्यके एक खण्डको छोड़ कर शेष पाँच खण्डके मनुष्य विहार नहीं होता और न वैसे बोकोत्तर पुरुष यहां जन्म इसी प्रकारके हैं। उनमें षट्कर्म-व्यवस्थाके अनुसार कसी ही लेते हैं अत: न तो वहांक मनुष्य बन्ध-मोक्ष, भारमा- प्रकारकी भी सामाजिक व्यवस्था नहीं है यह देख कर परमात्मा, लोक-परलोकसे परिचित रहते हैं और न वहां त्रिलोक-प्रज्ञाति प्रादिमें उनको म्लेच्छ कहा। पर सर्वार्यकिसी भी प्रकारके व्यवहार धर्मकी प्रवृत्ति होती है। मेरे सिद्धि प्रादिमें इस प्रश्नको गौण कर दिया गया। या ज्यालसे त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें इसी अभिप्रायसे इनको मिथ्या उनका समावेश 'शकयवनशवम् पुलिन्दादयः' में आये हुए इष्टि भी कहा है। तथा वहांके मनुष्य यद्यपि कृषि प्रादिसे आदि पदसे म्लेच्छोंमें कर लिया। हमारे इस अनुमानको ही अपना उदर पोषण करते हैं फिर भी वहां षट्कर्म वय- पुष्टि इससे हो जाती है कि सर्वार्थ सिद्धि प्रादिमें भरतादिके वस्था नहीं होनेसे वे वहाँ सामाजिक या वैयक्तिक उन्नतिके छह खण्ड कर्मभूमि और अकर्मभूमिरूपसे विभक्त नहीं अनुकूल साधन-सामग्री एकत्र नहीं कर सकते हैं। यह दोष किये गये। उन सबको कर्मभूमि माना गया है। अत: जहां वहाँके क्षेत्रका है अतः ये अकर्मभूमि या म्लेच्छ खराब कहे षट्कर्मव्यवस्था दीखीवे मार्य और शेष शक, यवनादिक जाते हैं। तथा इन्हें कर्मभूमि कहनेका कारण यह है कि अनार्य या म्लेच्छ ठहरते हैं। अतः विचार करने पर यही