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नया मुसाफिर [ लेखक-श्री भगवत्' जैन ]
-be:सवा सात आने हाथमें थामे, कच्ची ईटोंसे बनी सुहावनी सन्ध्या समाप्त हो चुकी थी। अँधियारी हई सरायकी एक छोटी-सी कोठरी में बैठा, शेखर घिरती आ रही थी । घएटे-भर पहले जिस पार्कम सोचता जा रहा है-'आखिर कितने दिन काट कोई भी बैंच खाली नहीं किम्वलाई देती थी। वहाँ सकता हूँ इस तरह ? और चार-छः दिन ! फिर ? अब सिवा बेकार-शेखरके और कोई मौजूद नहीं है। गाँवसे पाया था तब तीन रुपए, सवा पाँच आने थे। हरी-हरी मुलायम घासपर पड़ा, शेखर सच
और आज.-सिफ सवा सात आन ! यानी दिन-पर रहा है-आजका दिन भी गया । अब क्या होगा दिन दरिद्रता काबू पाती जा रही है।
भगवान ?? पिछले इन बीस-पच्चीस दिनोंमें एक दिन भी विह्वल-सा, निराश-सा मशीनसे कटी हुई चपर ऐसा सामने नहीं आया, जिस दिन कहीं जगह मिलने । हाथ फेरता हुआ शेखर बोला-'इस दूबकी देख-रेख की जरा-सी भी आशा बँधी हो । नित्य आशा लेकर करने वाला भी कोई है, जो जमीनसे मिली हुई है, उठा और निराशा लेकर ही सोया।
जो पैरोंसे लूँ दी जाती है। लेकिन मुझे, जो डिगरियों और आज यह सवाल और भी गहरा हो रहा की लालसामें रात रात भर किताबोंम सिर खपाता है, जबकि सवासात पाने ही शेष हैं-कि भविष्य रहा, आज कोई नौकरी देनेवाला भी नहीं है। न जाने क्या छिपाए बैठा है अपने में ?
--बदनसीबी!' मोबने.मोन पता नहीं कब शेखरकी आँख बड़ी देर तक पड़ा रहा शेखर, चप-गमसम । लग गई। जब उठा तो सबेरा था । सरायका शान्त- और फिर गुनगुनाता हुआ उठ खड़ा हुभा-'भगवातावरण, चहल पहल में बदलता जा रहा था। कोई वान ! किनारेसे लगा दो मेरी नैया!' आ रहा था, कोई जा रहा था। मुसाफिरोंका बाजार
'पर्स"? अरे, पसे ही तो है, इसे कौन गिरा गर्म था, मुल्ला 'अजान' दे चुका था, मन्दिरोंके घड़ि- गया यहाँ ?'-बटुआ हाथमें लेकर उलटते पुलटते याल गूंज रहे थे।
हुए शेखर बोला। आवाजमें तृप्ति थी, सन्तोष था, हवा-खोरी के लिए निकला हश्रा कोई नौजवान प्रसन्नता थी। गाता हुश्रा भला जा रहा था
और वह लम्बे-लम्बे डग धरता हुश्रा बढ़ा, 'भगवान् ! किनारेसे लगादो मेरी नैया !!
सरायकी ओर । पैरोंमें जैसे 'पर' लग गए थे। आँखें मींड़ता हुश्रा शेखर विस्तरसे उठ रहा।
बहुत दिन पीछे आज उसके चेहरेपर खुशीकी सुखर्जी था, कि रसीले-कण्ठसे निकली हुई पंक्ति उसके हृदय
दौड़ी थी। नस-नसमें जैसे बिजली भर रही थी। से जा टकरा बड़ी अच्छी लगी। उसका हृदय भी
दिल धक-धक कर रहा था। रातकी अँधियारी उसे गुहार उठा
बड़ी भली लग रही थी। 'भगवान !"
कोठरीमें आकर उसने दिया जलाया । भीतरसे भगवान ! किनारेसे लगा दो मेरी नैया!' सांकल चढ़ा दी। और काँपती-सी उंगलियोंसे बटुआ
खोला। मन भगवानसे प्रार्थना कर रहा था