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किरण ]
भ० महावीरके विषयमें बौद्धमनोवृत्ति
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या दु:खोंसे मुक्ति । बुद्ध के क्षणिकवाद और शून्यवादका भी समाजमें इस भावनाका उदय हुए विना समाजवाद स्थायी प्रारम्भमें यही प्रयोजन था। इसी प्रयोजनकी सिद्धि के लिये रह ही नहीं सकता। अत: दुनियाको 'जियो और जीने दो' बुद्धने घर-बार छोड़ा और कठोर साधनाके द्वारा बुद्धत्व-पद- का शुभमन्देश देनेवाले व्यक्तिवादी महावीरकी विचारधाराको को प्राप्त किया। महावीर स्वामीका भी यही लक्ष्य था, न यदि दुनिया अपना सके तो उसे अपनी समस्याएँ सुलझाने कि कायपीदन । उनका कहना था
के लिये नर-रक्तसे होली न खेलनी पड़े। न दुःखं न सुखं यद्रत हेतुईष्टो चिकिति ते।
शान्ति भिक्षु लिखते हैं--'बुद्धने स्वार्थमूलक संघर्षको चिकित्सायां तु युक्तस्य स्याद् दुःखमथवा सुरुम।। दुःखका कारण कहा है। आगे लिखते हैं-'पर यह स्वार्थ न दुःखं न सुखं तद्वत हेतुर्मोक्षस्य साधने । कैसे दूर हो इसके लिये बुद्ध व्यक्तिगत भाचरणापर मोक्षोपाये तु युक्तस्य स्याद् दुःखमथवा मुखम् ॥ ही जोर देते हैं।' किन्तु वे व्यक्तिगत आचरण कौनसे हैं
अर्थात्--जैसे रोगके इलाज में न दुःख ही कारण है यह उन्होंने नहीं बताया। वे लिखते हैं--बुद्ध भिक्षऔर न सुख ही कारण है किन्तु इलाज शुरू करनेपर संघमें व्यक्तिगत सम्पत्ति रखनेसे मना किया है किन्तु दुःख हो या सुख, उसे सहा ही जाता है। वैसे ही मोक्षकी अधिकसे अधिक कितना रख सकता है इसके लिये विनय साधनामें न दुःख ही कारण है और न सुख ही कारण है। में नियम हैं। और इसका कारण वे बुद्धकी विचारधाराका किन्तु एक बार जब मोक्षके मार्ग में कदम रख दिया जाय समाजवादी होना बतलाते हैं। किन्तु महावीरने तो अपने तो फिर दुःख हो या सख, उपकी पर्वाह नहीं की जाती। श्रमणोंके लिये किसी भी प्रकारकी सम्पत्तिको अग्राम यही महावीरकी साधनाका मार्ग है।
करार दिया है। उनके श्रमण केवल एक मयूरपिच्छी और महावीर दुनियासाङ्गीसे दूर थे किन्तु दुनिया उनकी
एक कमंडलु ये दो ही उपकरण अपने पास रख सकते हैं। अन्तष्टिसे बची हुई नहीं थी । वे व्यक्तिवादी जरूर थे
भोजन गृहस्थके घर कर पाते है और जहां कहीं भी स्थान किन्तु उनके व्यक्तित्व में दुनियाका प्रत्येक जंगम और स्थावर
मिलता है अपना भासन लगा लेते हैं । न उन्हें चीवर प्राणी समाविष्ट था। तभी तो वे दुनियाको 'अहिंसा परमो
की चिन्ता है, न पीठफलक की. न सूची की और न सोयरे धर्म:' का उच्च सन्देश दे सके और उन्होंने उसके सम्बन्ध
की। महावीरने अपने प्रहस्थों तकके लिये यह नियम रखा में किसी भी प्रकारका समझौता करना उचित नहीं
है कि वे अनावश्यक परिग्रहका संचय न करें और अपने समझा, जैसा कि बने किया। यद्यपि उनके धर्मविस्तार
कुटुम्बकी आवश्यकतानुसार यावज्जीवन के लिये परिग्रहका का क्षेत्र परिमित होगया, किन्तु उन्होंने इसकी पर्वाह नहीं
परिमाण करलें, ताकि वह अनावश्यक रूपसे एक जगह की। 'जियो और जीने दो' यही उनका मूल मंत्र था
संचित न हो जाय । क्या हम भितुजीसे यह पूछनेकी यदि प्रत्येक व्यक्ति के प्रति, प्रत्येक समाज अन्य समाजीक
पृष्टता कर सकते हैं कि इन दोनों विचारधाराओं में कौन प्रति, प्रत्येक वर्ग दूसरे वर्गोंके प्रति और प्रत्येक राष्ट्र दूसरे
समाजवादक अधिक निकट है? राष्ट्रोंके प्रति इस मूल मंत्रका भ्यान रखकर व्यवहार कर प्रायः प्रत्येक सम्प्रदाय के मानने वालों में एक बड़ा सके तो भाजकी दुनियाकी अनेक भारी समस्याएँ स्वयमेव दोष यह होता है कि वे दूसरे सम्प्रदायोंके सिद्धान्तोंको सलम जाय। पर होरहा था कि प्रत्येकके अन्दर जीनेकी बिना देखे, बिना जाने ही उनकी मालोचना कर डालते हैं। तो बलवती भावना है किन्तु जीने देनेकी भावना कतई अन्य सम्प्रदायोंके बारेमें उन्हें जो कुछ ज्ञान रहता है वह नहीं है। फलतः व्यक्ति-संघर्ष, समाज-संघर्ष, वर्ग-संघर्ष या तो साम्प्रदायिक जनश्रतिके माधार पर रहता है या
और राष्ट्र-संघर्ष चालू हैं। और ये संघर्ष तब तक शान्त अपने सम्प्रदायके ग्रंथों में दूसरे सम्प्रदायोंका जो चित्रण नहीं हो सकते जब तक इस भावनाका उदय नहीं होता। किया गया है उसके प्राधारपर रहता है। और साम्प्रदाप्राजके समाजवादके मूल में भी यही भावना काम करती है, यिक ग्रंथों में दूसरे सम्प्रदायोंका जो चित्रण रहता है वह