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किरण ८ ]
'भगवान ! ऐसा न हो कि बटुआ खाली निकल जाय !' मुँह से गुनगुनाता जा रहा था-- काँपती आवाज में- 'भगवान ! किनारेसे !
एक मुसाफिर
सचमुच, शायद भगवानको उसपर तरस आया हुआ था । बटुआ खाली नहीं निकला । दरिद्र शेखर की आशा से अधिक पैसा उसमें मौजूद था। सोनकी सुर्ख नगसे जड़ी हुई अँगूठी और डेढ़-सौके खुदरा
नोट !
हृदय उसका आनन्दसे भर उठा । लालायित-नज्जरोंसे नोटों को देखता और अंगूठी को उँगली में अटकता हुआ, शेखर सोचने लगा-'वर्षो सकता हूँ इतनेसे । न मिले नौकरी, पर्वाह नहीं।
आज शेखर की आवाज में वह करारापन था, वह अकड़ थी, जैसे वह दुनिया में सच कुछ कर गुजरने की ताकत रखता है । पुरुषार्थसे भरा-पूरा है । चारों ओर उसके आशाओंके सुनहरे सपने बिखरे पड़े थे ।
शायद आधी रात तक यों ही बैठा रहा, हिला तक नहीं । न जाने कहाँ-कहाँ तक उसके विचार छलाँगें भर रहे थे ।
सराय निस्तब्ध थी। सरायके पिछवाड़ेकी सड़क भी खामोश होती जा रही थी। पर, शेखर जाग रहा था, शरीरका अणु-अणु जाग रहा था, और जाग रहीं थीं उसकी अभिलाषाएँ ! सोच रहा था-डेढ़सौ रुपये से क्या व्यापार खोला जा सकता है ?"
अंगूठी उँगली में पड़ी, फल-झल कर रही थी । शेखरने हाथ फैलाकर देखा, बड़ा सुन्दर हाथ लगता है । और मुस्करा उठा ।
पर, दूसरे ही क्षण, उसके उदासीने स्याही फेर दी ।
पर चिन्ताकी
'अँगूठी किसीने देखकर पहिचान ली तो ? पकड़ा गया तो ?"
तिलमिला-सा गया शेखर ! सोचने लगा-'सचमुच, चोरी ही तो है यह ! जिसका खोया होगा वह क्या दुआएँ देगा - मुझे ?
पाप ! --- बगैर दी हुई चीजका प्रहण करना पाप
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नहीं तो क्या है ? उफ ! कितना अनर्थ कर बैठाअब तक इस सिद्धान्तपर कायम रहा कि जो अपना नहीं, वह धन नहीं। लेकिन आज ?
अंगूठी शेखरने उतारकर अलग रख दी । दिया तेज़ किया। जैसे अपने भीतर के अँधेरेको भी मिटा डालना चाहता हो ।
'यह दरिद्रताका अभिशाप है, कि वह मानवीयता को नष्ट किए दे रही है । मुझे रास्ते में किसी की पड़ी हुई चीज़ उठानेका अधिकार क्या था ? - निश्चय ही भूल हुई है ! और भूल सुधारी भी जा सकती है !"
शेखरने बटुएका एक्सरे करना शुरू किया। दो मिनटवाद ही उसका चेहरा खिल उठा। बटुएसे एक कार्ड मिला -- जिस पर लिखा था- 'मि० नत्रलकिशोर गुप्त' और नीचे बारीक-टाइप में पता नोट था ।
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ढूंढने वाली नजरों से कभी कोई छिप नहीं सका । शेखरको इस पर विश्वास था । और इसी विश्वासको लेकर वह मिन्नवलकिशोर गुप्तकी तलाशमें निकला। उसका अनुमान था कि इस लम्बे-चौड़े महानगरसे गुप्तजीको पा लेना सहज नहीं होगा। हो सकता है, दो-चार दिन इसमें लग जाँय । लेकिन वह इस पर तुला हुआ था--' पर्वाह नहीं, कितना ही घूमनाफिरना पड़े पर गुप्तजी को ढूंढना अवश्य है !'
किन्तु शेखरका अनुमान सही नहीं बैठा । घन्टे - भरको दौड़-धूपमें ही मि० नवलकिशोर गुप्तकी कोठी में जा पहुँचा! ढूढना कठिन नहीं रहा, इस लिए कि गुप्तजी ख्यात प्राप्त व्यक्तियों में से एक थे । वे एक कपड़े की बड़ी मिलके जनरल मैनेजर थे । सब कोई उन्हें जानते बूझते थे ।
कागज पत्रों से नज़र हटा कर वे बोले - 'हाँ, क्या चाहते हैं आप ? कहिए ?”
शेखरने देखा - आदमी बड़ा, पैसे वाला, ज़रूर है, पर घमण्डी नहीं है । मुँह पर मुस्कराहट है, वाणी में मिठास !
पर्सको जेब से निकालते हुए शेखरने कहा- 'जी, यह आपका पर्स मुझे पार्क में पड़ा मिला था -- शायद