Book Title: Anekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 312
________________ किरण ] जीवन और धर्म पाकर घिर जाया करते हैं कि वह मानों कारागृहकी अंध- यह परमामृत, जन्म-जरा-मृति-रोग-निवारण।" कारमय कोठरीमें ठूस द गई हो । इसका कारण हैं इमारी गगदषपूर्ण और मोहाच्छन्न दुष्प्रवृत्तियाँ। यदि हम धन, समाज, गज, वाज, राज तो काज न आवै । मान, माया, लोभ, रागद्वषादि करना त्याग दें. ज्ञान प्रापको रूप भये, फिर अचलरहा वै॥छादाला शुभाशुभ प्रवृत्तियोंसे मुख मोड़ लें और "तेग मेरा" की हम प्रत्यक्ष अनुभव में भी देखते हैं कि अधिकांश खटाईमें न पड़ें तो बहुत कुछ बच सकते हैं, इन्हींके कारण बालक पाठशालामें जानेक नामसे नाक भौं सिकोड़ते हैं आत्माका पिड पुद्गगल परमाणु स्वागते नहीं और ऐसा न लेकिन माता-पिताके डर के मारे पट्टी-दफ्तर लेकर घरग होनेसे श्रावरण कुछ दूर होना नहीं । परन्तु यह कार्य तो निकल जाते हैं परन्तु बाहर अानेपर वृक्षोंपर चढ़कर करना उतना ही कठिन है जितना सरल कहना । "कथनी इमलियां तोड़ कर खाना, गोलियां खेलना श्राद कायं बड़े मीण खाँडसी, करती विषकी लोथ ।" का यही अनुभव ही उत्साह, उमंग और लगन से करते हैं। जब वह होता है। ये पुद्गल परमाणु कई तरह के होते हैं, परन्तु जो पाथियों के शान प्राप्त करने में ही इतना बोझ और कष्ट प्रतीत आत्मासे चिपकते हैं, वे कामीण शरीर के अंतर्गत कहे जाते होता है तब संपूर्ण ज्ञान-केवलज्ञानको प्रकट करने में कैसा हैं । हम कार्माण शरीरसे दूर होने क लिए, उसे भस्मीभून और कितना परिश्रम अपेक्षित होता होगा, कौन कल्पना करने के लिए, एक करके शब्दोंमें कर सकता है। एक कविने एक ऐसे ही साधुका जो ज्ञान "ज्ञानदीप, तप-तेल भर, घर शोघे भ्रम छोर ।। साधनाम जंगलके भीतर नल्लीन होकर अपने ध्यानमें निरत या विधि बिन निकसे नहीं, बैठे पूरब चोर ।" थे, बड़ा सुंदर, सजीव ए मार्मिक चित्र चित्रित किया है, -भूधरदास जिमे अवलोकन कर कल्पना होती कि यह वास्तवम प्रयत्न किया जाय, तप किया गय तो ही सफल ना कितना दु:सह कार्य होगा। वह कहता हैप्राप्त हो सकती है। हमारा उद्देश्य जीवनमें ज्ञान गुणको, “तिन सुधिर मुद्रा देख मृगगण, उपल खाज खुजावते" जो अात्माका मुख्य गुण है, उसीकी अखण्ड और अवि- बस जहाँ केवलज्ञानरूपी सूर्यका उदय, कमौके नाशी ज्योतिको प्रकट करनेका प्रमुख रूपेण होना चाहिए। प्रावरणरूपी घनोंको तपरूपी अांधी द्वाग इटा कर, हो जाता क्योंकि हम धन-सम्मांत्त, राज-पाट, कुटुम्ब-कबीले, मान- है वही जीवनका धर्म प्रस्फुटित हो जाता है और जब वे सन्मानको तो सरलतासे थोड़ेसे ही पुरुषार्थसे या भाग्यसे दोनों एकाकार हो अनन्तकाल तक हमेशा के लिए सुखी बन भी प्राप्त कर सकते है, परन्तु ज्ञानधनका प्राप्त करना, जाते हैं। और इसी में मानवताका अथवा मानव-जीवनका यद्यपि वह हमारे समीप ही है. बड़ा ही कठिन कार्य है। चरम लक्ष्य और मंगलमय व्यक्तित्व संनिहिन है। एक कविने तो उसकी महिमा-गानमें यहाँ तक कह डाला- धर्मकरत संसार सुख, धर्मकरत निर्वाण । "ज्ञान समान न ान जगतमें सुखका कारण। धर्मपंथ साधे बिना, नर तियेच-समान ।। ज़रूरी सूचना अनेकान्तकी सहायता और चन्देका सय रुपया वीरसेवामन्दिरको निम्न पते पर भेजा जाना चाहिये। व्यवस्थापक 'भनेकान्त' वीरसेवामन्दिर, पो. सरसावा जि. सहारनपुर

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