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उसके विस्तृत साम्राज्य में पक्षपातको कोई महल ही नहींवहां तो आप उनके कितने भी प्रेमी हो, परन्तु जहां उसने हमारा उद्धार होनेके लिए बचपन में हमसे स्नेह किया था, वहाँ यदि हम नहीं चेते अपने प्रति सजग नहीं हुए तो पतन अथवा विनाश अवश्यम्भावी है । क्योंकि वह हमारा साथ नभी तक देनी है, जब तक हम अपने पैरोंपर खड़े नहीं होते ।
अनेकान्त
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लेकिन जहां धियाला है वहां उजियाला भी है, जहाँ है वहां भीति भी है और जहां अनुराग है वहां चिराग भी है-हमी नियमानुसार यह भी स्वीकार करनेको बाध्य होना ही पड़ता है कि जहां इस प्रकृतिके साम्राज्यमंसारमें स्वार्थी एवं मोदी जन निवास करते हैं-रागद्वेष, लोभ और माह दी जिनका एकमात्र उद्देश्य रहता है, वहां इन सब प्रवृत्तियोंसे प्रतिकूल विचारवाले व्यक्ति भी यहीं निवास करते हैं— जो सांसारिक मभी बातों एवं वस्तुओं तथा विषयांसे उनकी सुन्दरना चित्ताकर्षकता और लुभावने रूपरंगसे सर्वथा उदासीन तटस्थ रहते हैं । संसारी जन अपनी प्रवृत्तियों पर चर्म चक्षुश्रीसे विचार करते हैं—उन प्रवृत्तियों के मूलकारणकी खोज तक वे पहुँच नहीं पाते । इसलिये उनके विचार बाझ श्राडम्बरपूर्ण जगत तक ही सीमित रह जाते हैं तथा क्षणिक तो वे होते ही हैं । परन्तु बे विरागी उदासीन जन जी निर्मोही, निस्वार्थी एवं तटस्थ होते हैं, अपनी चर्मचक्षुओं पर तथा प्रकृतिपर विजय प्राप्त कर चुके होते हैं और तब अपने अंतर्चों एवं दिव्य चक्षुत्रोंसे संसार दशावर प्रकृति की वृवृत्ति पर गंभीरतापूर्वक शुद्ध एवं निर्विकारी महिनष्क विचार करते हैं-वहाँपर जहां न होता है तेरा मेराका कोलाहल, कौचांकी काँव काँव, कुत्तोंका भूँकना और चिड़ियोंका चहकना ! वे सोचते है - यह जीवन केवल आजकल या सौ-पचास वर्षोंका ही ढकोसला मात्र नहीं है, यह युग-युगीन, सनातन और चिरंतन है । इसी पर्यायके जन्म और मरणमात्रसे इसकी इतिश्री नहीं होजाती । जन्म और मृत्युपर जब तक विजय प्राप्त न की जायगी ऐसे अपूर्ण जीवन - श्राज रहे कल चले जसे क्षणिक - जीवन एक बार ही नहीं कई बार उपलब्ध हुए हैं, और यह कौन कह सकता है कि वे कब तक प्राप्त होते ही जाएंगे। आज तक सागर से भी अधिक परिमाण में माताका दुग्ध पान कर गए, आज तक इतना दाना-पानी पचा गएकि जिसकी गिनती
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[ वर्ष ६
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लगाना भी शक्ति के परेकी बात हो गई। परन्तु हमना होनेपर भी हमारी इच्छाएँ आशाएँ, हमारी आकांक्षाएँ ज्योंकी त्यों बल्कि अधिक नीरूपमें बनी हुई हैं। ज्यों ज्यों तृष्णाको शान्त करनेका उपक्रम किया जाता है त्यों त्यों तृष्णा बढ़ती जाती है--कहीं ठिकाना है इस मोड़ का ! उन विचारकोंने सूक्ष्म अध्ययन के उपरान्त हमारे कल्याण के लिए कहा- ऐ मानवो ! तृप्ति संग्रह में नहीं, संचय करनेमें नहीं और मोद अथवा प्रेम में भी नहीं। तृप्ति है त्याग में, तटस्थ मनोवृत्ति में और अपरिग्रह में। जब तक मन और पांचों इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त नहीं की जाती, उन्हीं के वश में रहा जायगा, तब तक, तृमि, उन्नति उद्धार एवं उत्थान कांठन ही नहीं असम्भव भी है। देखिए, रमना इंद्रियको प्रसन्न करने के लिए हमने उसे तरह तरहके घट् रस पकवान खिलाए परन्तु स्वादलोलुप बनी ही हुई है । धारणको देखिए, उसे भी नाना प्रकार के सुगन्धित पुष्पों और द्रव्योंमे परिचित कराया गया, इत्र- फुलेल सुंघाए गए परंतु क्या वह आज तक भी तृम हुआ है ? इन आँखोंको देखिए, जो रूप की और वर्णकी प्यासी है— क्या क्या नहीं देखा इन्होने, परन्तु, कहीं भी यदि तनिक भी सुन्दरता दोम्बी कि श्रड़ गई बद्दोंपर ! इन्होने तो भक्त प्रवर सूरदास जीको अंधा होने के लिए वाध्य किया था न ! और ये कान, कोकिला कंठी मधुर मधुर गीत. गान और कविताएँ तथा अपमान और अभिमानपूर्ण बातें सुनते सुनते जिन्हें श्रनन्तकाल बीत गया लेकिन श्रौर भी सुननेके लिये ऐसे उत्कंठिन रहते हैं मानों उनपर आज तक पर्दा ही पड़ा रहा हां? इन्हीं इन्द्रियोंके वशवर्ती होने के कारण हमें अपने आपकी सुधि नहीं रहती और ऐसे अवसरोंसे सामना करना पड़ता है कि जीवन से हाथ धोने का समय सम्मुख उपस्थित दोजाता है। यही नहीं, इन पाचों की तो बात ही निराली है, किन्तु एक एक केवशवर्ती होनेसे भी प्राणोंसे भी हाथ धोना पड़ता है । एक भक्त एवं साधक कविने इस विषयका एक सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया है, जो मननीय होनेके साथ ही साथ मार्मिक एवं तथ्यपूर्ण है"मीन, मतंग, पतंग, भृङ्ग, युग इन वश भये दुखारी" -दौलतराम तात्पर्य यह कि रसना के वश होकर मछली, त्वचा के
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