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विषय-सूची
२२६ ८ नागसभ्यताकी भारतको देन - [चा. ज्यांनिप्रसाद जैन २४६ ● कौनसा क्या गीत गाऊँ (कविता) - [श्री श्रोमप्रकाश २४८ १० सलाह (कविता) - [श्री शरदकुमार मिश्र २४८ ११ आत्मशक्तिका माहात्म्य - [श्री चंदगीराम विद्यार्थी २४६ १२ श्रीराहुलका सिंह सेनापति - [श्रीमाणिकचंद पांड्या २४३ १३ सरस कवि - [पं० मूलचन्द वत्सल
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१ समन्तभद्र भारती के नमूने - [सम्पादक
२ अशान निवृत्ति - [पं० माणिकचन्दजी ३ वैदिक प्रात्य और महावीर [श्री कर्मानन्द ४ गद्यगीत - [श्री 'शशि'
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५. नयोंका विश्लेषणा - [पं० वंशीधर जी व्याकरणाचार्य २३७ ६ यदि तुम्हारा प्यार होता (कविता) - श्रीभगवन जैन २४५ ७ हम तुमको विभु० (कविता) - [ हीरक जैन २४१ कवि-विमर्श
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सराबोर प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा !
अवजल गगरी अलका करता, पूरण-घट रहता हूं निश्चल ! चन्द्र पड़े शव के क़तरे, हरित बना देंगे क्या महन्थल ? रम कनिका न समय है, पड़ने घीकी भाँति जलेगा ! सरावार यालीका तो रम, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा !!
शाश्वत निधन-हीन रहते क्या, सुख-दुखकृत (मं+सार) नहीं है ? संसारी कमसे लिपटा, वह बन्धन से पार नहीं है ! मुक्त हुए 'मानव' कैसा ? फिर, सुख-दुखका भागी न रहेगा ! सराबोर प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय दलक सकेगा !! ऋषी-मुनी भी देश-कालकी, स्थितिका रवते अवधारण ! क्योंकि सानुकूलता उनकी होती स्व-र-श्रेयका कारण ! लता - सफलता पर उसकी ही, रक्षा में नव कुसुम खिलेगा ! सराबोर प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा !!
मैं तो नहीं मानता जगको, इस थोधी-मायाका जाया ! द्रव्य-क्षेत्र भव-भाव-कालकी, चलती-फिरती रहती छाया ! मयत्, शील, तर दया बिना कुछ केवल त्याग' न काम करेगा ! सराबोर प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय हलक संवेगा !! शान्ति द्वन्द्व एकत्र न देखे, आगे पीछे आते जाते ! हिंसा उत्पत्ति अहिंसा की ही वैयाकरण बताते ! केवल अवलोकन न सार्थ है, जब तक वह फतृत्व न लेगा ! सगचोर-प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा !! परिभाषा - भरकी अभिगति से दूर न होती हृदय-त्रलुपता ! पूरन, पूरव-सा कैसे है ? क्यों की दहती रिता ? क्षितिज - ककुभ-अम्बरतलमें भी, राग-द्वेष क्या घर कर लेगा ? सरावोर प्यालाका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा !! संकट संस्कृत कर देता है, आत्मग्रन्थिका विकृत- गुंठन ! खारी तप्त अश्रुकी बूंदें, मधुरिम-शीतल कर देतीं मन ! देर भले अंधेर नहीं है, कृतका फल भरपूर मिलेगा ! सराचार - प्यालीका तो रस, नहीं कभी प्रिय छलक सकेगा !!
दुम्ब-सुख, पाप-पुण्यका अनुचर, दुखमें भी प्राणी सुख कहता ! विज्ञ साम्यसे देखा करते, मूरख उनमें रोता-हँसता ! नियति-नियम तो एक रहा है, कैसे कोई दो कह देगा ?
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