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श्री राहुलका "सिंह सेनापति
(ले०--श्रो मागकचन्द पांड्या)
-सिंह सेनापति" एक उपन्यास है। ईसा पूर्व ५०० कुछ उदाहरण निम्न प्रकार हैं:-- का इसमें कथानक है । इसके लेखक हैं 'श्री राहुल सांकृत्या- भगवान महावीरके सम्बन्ध में चर्चा चल रही है तब इन'। श्री राहुल हिंदीसाहित्यके माने हुए विद्वान हैं, सेनापति सिंह पूछता है-- रूपी संस्कृतिक विशेषज्ञ, बौधर्मके प्रकाण्ड विद्वान । "बड़े तेजस्वी हैं?" यह उपन्यास सन् १९४२ में ' ग्रन्थमाला कार्यालय' अजित--'तेजम्बी-ओजस्वी तो मैं जानता नहीं। बांकीपुर, पटना द्वारा प्रकाशित हुआ है।
हां, यह मैंने देखा है कि वह ग्रीष्म, वर्षा, शीत. सारी उक्त पुस्तक मैंने स्थानीय लायब्रेरीसे पढ़ने के लिए तुओंमें नंगे रहते हैं।" ली। श्री राहुल का नाम पुस्तक पढ़ने के लिये पर्याप्त प्राक- रोहिशी--"नंगे!--नियों भी सामने ? गण रखता था । पुस्तक प्रारंभ की--विषय प्रवेश इस ठाठ अजित-"हां, भाभी! निग्रंथ कहते ही हैं नंगेको। से किया गया था कि पुस्तक शीघ्रतर खतम कर देने की मैं तो सिर्फ दो बार गला दबाने पर गया है. किन्तु इस इरछा हो। पुस्तक पढ़कर मनमें बड़ा धक्का मा लगा। नंगेपनको देवकर तो मैं जमीन में गदा जाता था." मोचने लगा क्या सचमुच हमाग जैनसमाज इतना मृत
रोहिणी--"सचमुच देवर ! कैमे कोई पुरुष हनना प्राय होगया है कि कोई भी व्यक्ति हमपर चाहे जब चाहे
बेशर्म हो जायगा।" जैमा प्रहार करदे, और हमारी निद्रा-भंग होती ही नहीं।
अजित --' और इसीको हमारे कितने ही मूर्ख तपनेज मन् १६५२ में प्रकाशित यह उपन्याम अब मैंने संयोगवश
कहते हैं।" पढ़ा और तब आज जक्त पुस्तकसे चंद उद्धरण मैं पाप
रोहिणी-- नंगा रहनेके अतिरिक्त और भी कोई लोकी जानकारी के लिए नीचे दे रहा हूँ :---
बात है, उनमें ?" "वैशालीके पूरब और दकिम्वन-दोनों ओर दुष्ट
अजित--"मैं नहीं जानता, न जाननेकी कोशिश बिंबमार का राज्य है।"
करूंगा। मैं उनके नंगेपन श्रधा गया हूँ । बोलो भाई ..."वही दिवसार -जो मारा जोखिम उठाकर एक
सुभद्र ! तुम तो निगंठोंक बडे चेले बनने हो न, बतायो न रात चोरी चारी-अम्बागाली (एक वेश्या) क मोहर्य
भाभी को।" मधुका पान करने बैशाली भाया था--" (पृ.१५) उपरोक्त दो उदाहरण बिंबपारके चरित्र-चित्रणाके हैं।
सुभत--"तुम्हें अजित ! धर्म-श्रद्धा इतक नहीं गयी बिंबसार और कोई नहीं, राजा श्रेणिक है। क्या भगवान
है। बम, श्रमों की निंदा करना ही मुम्हें पसंद है।" महावीरक समवशरखका श्रेष्ट श्रोता ऐसा था? क्या जैन- अजित--"श्रमणों की बात न कहो भाई सुभद्र ! माहित्य इस चरित्रकी प्रतिच्छवि ऐसी ही अंकित करता है? अपने निगंठ वईमान या महावीरका क्या कहते हो, उनकी
परन्तु यह उदाहरवा तो कुछ नहीं है। यह तो मात्र बात भाभीको बतलामी। मैं दावेसे कहता ई. भाभीको उस समयके राजा विषयमें है.परंत स्वतः 10.मलाया- तुम कच्ची बुद्धिका न पायोगे ।" युक्त अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर, प्रादर्श जैन साधु- सुभद--"तो निगंठोंके श्रावक [शिप्य] तुम्हारी रायमें संख्या एवं जैन धर्म विषयमें भी लेखकने पात्रोंमे जगह-- करची बुद्धिके होते है?" जगह ऐसे अपमानास्पद शब्द एवं वाक्य कहलाए हैं कि अजित--''और लज्जाशून्य ।" पढ़कर मन अत्यन्त विचध होजाता है। उक्त पुस्तकर्मेसे सुभद--''तुम भी जाडे-गर्मीम वैसे नंगे रह सकते हो?