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अनेकान्त
[वर्ष ६
जयपरमें गुमानपंधका एक मंदिर बना हुआ है, जिसमें पं. रामजीx, तिलोकचन्दजी सांगानी. मोतीराम पाटणी. हरिटोडरमल जीके सभी ग्रन्थों की स्वहस्तलिखित प्रतियां सुरक्षित चन्दजी, चौखचंदजी, श्रीचंदगी सोगानी और नेनचन्दजी है। यह मंदिर उक्त पंथकी स्मृतिको आज भी ताजा कर पाटणीके नाम खासतौरसे उल्लेम्वनीय हैं । बसवानिवासी देता.
पं. देवीदास गांधाको भी श्रारक पास कुछ समय तक पंडितजीको इस बातका बड़ा ध्यान रहता था कि कभी तत्वचर्चा सननेका अवसर प्राप्त हश्रा था। किसीको उनके व्यवहारसे कष्ट न पहुँच जाय-उमका
पं. टोडरमल्लजी केवल अध्यात्म अन्यों के ही वेत्ता अहित न होजाय । इसीसे वे अपने व्यवहारमें सदा सावधान
या रसिक नहीं थे; किन्तु साथ में व्याकरण साहित्य, सिद्धान्त, रहते थे। उनके घरपर विद्याभिलाषियोंका खासा जमघट
दर्शन और जैनधर्मके करगानयोग के अच्छे विद्वान थे। लगा रहता था, विद्याभ्यासके लिये घरपर जो भी व्यक्ति
आपकी कृतियों का ध्यानसे समीक्षण करनपर इस विषयमें श्राता था उसे वे बड़े प्रेमके साथ विद्याभ्यास कराते थे ।
मंदेहको कोई गुजायश नहीं रहती। श्रापके टीकाग्रन्यांकी इसके सिवाय तत्वचर्चाका तो वह केन्द्र ही बन रहा था ।
भाषा यद्यपि ढूढारी (जयपुरी) है फिर भी उसमें ब्रजभाषाकी पहा तत्वचर्चाक रासक मुमुक्षु जन बराबर अाते रहते थे।
पुट है और वह इननी परिमार्जिन है क पढ़ने वालोंको और उन्हें आपके साथ विविध विषयोंगर नत्वचर्चा करके
उसका सहज ही परिज्ञान हो जाता है । आपकी भाषामें तथा अपनी शंकाओंका समाधान सुनकर बड़ा ही संतोष
सरमता र सरलता है, जो पाठकोको बहुत रुचिकर होता था और वे पंडितजीके प्रेममय विनम्र व्यवहारसे
प्रतीत होनी है। जैसा कि मोक्षमार्गप्रकाशककी निम्न प्रभावित हुए विना नदी रहते थे। आपके शास्त्र प्रवचनमें जयपुर के प्रतिष्ठित, चतुर और विविधशास्त्रोंका अभ्यास
तासू रतन दीवानने कदी प्रीतिधर येह ।
काग्ये टीका पूरगाा उर धर धर्मसनेह । १०। करने वाले प्रतिभासम्पन्न श्रोनाजन आते थे । उनमें दीवान रतनचन्द्रजी+ अनवरायजी, तिलोकचन्दजी पाटणी, महा
तव टीका पूरी करी भाषा रूप निधान ।
कुशल होय चहु संघको लहै जीव निशान ११॥ इस पंथका परिचय फिर किसी समय अवकाश मिलनेपर कराया जायगा।
अट्ठारहसै ऊपरै संवत् सत्तावीस ।। ___x दीवान रतनचन्दजी उस समय जयपुरके साधर्मियों मगशिर दिन शनिवार है सुदि दोयज रजनीस ।१३॥ में प्रमुख थे, बड़े ही धर्मात्मा और उदार सज्जन थे, श्राप यहाँ इतना और भी प्रकट करना उचित जान पड़ता के लघु भ्राता वधीचन्दजी दीवान थे। दीवान रतनचन्दजी है कि पं.नाथूरामजी प्रेमीने 'हिन्दी जैनसाहित्यका इतिहास' विक्रम सं. १८२७ में जयपुरके राजा पृथ्वीसिंहके समय
नामक पुस्तक के पृ. ७२ पर जो यह लिखा है-'मुनते है दीवान पद पर आसीन थे। पं. दौलनगमजीने उक्त जयपर राज्यके दीवान अमरचन्द्रजीने अपने पास रखकर दीवानजीकी प्रेरणासे पंडितप्रवर टोडरमलजीकी पुरुषार्थ- विद्याध्ययन कराया था।" यह ठीक नहीं क्योंकि पण्डित सिद्ध्युपायकी अधूरी टीकाको पूर्ण की थी। जैसा कि उसकी टोडरमल जी रतनचन्द्रजी दीवानके समय में हुए हैं, और प्रशस्तिके निम्नवाक्यसे प्रकट है:
रतनचंदजीके बाद उनके भाई बधीचन्दजी, फिर शिवजी"साधर्मिनमें मुख्य हैं ग्तनचन्द्र दीवान । लालजी और फिर इनके सुपुत्र अमरचंदजी दीवान हुए। पृथ्वीसिद नरेशको श्रद्धावान सुजान । ६।
+''महागमजी श्रोसवाल जातिके उदासीन भावक थे, तिनकै अतिरुचि धर्मसी साधर्मिनसों प्रीत । बड़े बुद्धिमान ये और यह पं० टोडरमल्लजीके साथ नव चर्चा देवशास्त्र गुरुकी सदा उरमें महाप्रतीत । ७॥ करने में विशेष रस लेते थे।" श्रानन्दसुत तिनको सखा नाम जु दौलतराम ।
है "सो दिल्लीतूं पढ़कर वसुवा श्राय पा जयपुर में थोड़े .......""कुल वणिक जाको वसवेधाम । ८ । दिन टोडरमलजी महाबुद्धिवानके पासि सुननेका निमित्त
मिल्या, पाछै वसुवा गये।"-देखो, सिद्धान्तसारकी टी.प्र.