Book Title: Anekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 303
________________ २६८ अनेकान्त पंडितजीके श्रोनाचोके समक्ष दीवान रतनचंद्रर्ज की प्रेरणा से मंदिरमें शास्त्रका व्याख्यान करनेका पं० देवीदासजीको अवसर मिला था । और वहाँ कुछ समय ठहर कर दीवान रतनचन्दजीकी मृत्यु हो जानेके बाद भी कितने ही वर्ष तक जयपुर में वधीचंदजी दीवानके वात्सल्य से वे रहे फिर सं० राष्ट्रोत्थानमें ग्रामोंका महत्व ( ले बा० प्रभुनाल जैन 'प्रेमी' ) चक्रवतीनरेश बड़ंत चारों ओर अपना रथ सजाकर घूमता हुआ अपनी मीठी रागसे सुन्दर संदेश सुना रहा था। कभी पृथ्वीकी हरियाली छटामें, कभी बनके ठूठे और अधजीवी वृक्षोंमें, कभी चात्र काननकी बोरोंमें छिपकर गहरा आनन्द लेता हुआ गा रहा था । ऋतुराज एक ग्रामीण भावुक युवक और सौंदर्य परिपूर्ण युवती के मुखकमलकी प्रभाको देखकर, प्रसन्न ही हो रहे थे, कि उन्हें ग्रामके घृणित वातावरण, धार्मिक भ्रान्ति, अज्ञानता, रूढ़िवाद और बुढ़ियापुराणके अन्धविश्वासपर दृष्टिपात कर अविश्रांत अश्रुधारा बढ़ाने के लिये विवश होना पड़ा। केवल इसीलिये कि जिन ग्रामोंमें भारतकी ६० प्रतिशत जनता निवास करती है. जो संख्यामें साढ़े सात लाख हैं, जो भारतीय राष्ट्रके हाथ और पैर हैं, जो भारतसरकारके अर्थकोपके सोना और चांदी हैं, जिनकी सभ्यता प्राचीनतम सभ्यताकी द्योतक कही जाती है। जिनके शील और सदाचारका पवित्र गुरुत्व संसारके समक्ष एक अनूठा आदर्श कहा जाता था, जिनकी उद्यमशीलता और कर्मण्यता संसार का पेट भरा करती थी, जिनकी शब्द स्नेहकी मात्रा परमेश्वर तकको आकर्षित कर लेती थी, जिनके बन्धुत्वका पराग विश्वमात्रको सौरभित करता था, जिनका ऐक्य वृक्ष सुस्वा दमय मधुर फलों को प्रदानकर सुरद और अनुरागी बनाया करता था, जिनकी निष्काम कर्मकामना गीताके उपदेशकी परिपक्वता प्रदर्शित किया करती थी, जिनके कोमल हृदय भावुकता और मानवताके सच्चे हृदयग्राही थे, जिनके पास छल, कपट और पाखंडको स्थान तक नहीं मिलता था, जिनकी विदुषी महिलाएँ किसी भी युगकी नवीनताकी संचालिका और संतति-पथ-प्रदर्शिका थीं, जिनके स्वावल [ वर्ष ६ १८३८ में पं० देवीदासजी मारौठ श्राये । श्रतः फुटनोटमें मुद्रित उक्त प्रशस्तिकी कुछ पंक्तियों पर पं० सुमेरचन्दजीने जो नतीजा निकाला है वह अभ्रान्त नहीं है। वीरसेवा मन्दिर, सरसावा ता० १६ मार्च १६४४ म्बनकी मात्रापर संसार मुग्ध रहा करता था, जो पारस्परिक प्रेमाच्छादित वस्त्रोंमें दुर्बलोंको छाया दिया करते थे, हाय ! भारत के उन ग्रामोंकी आज क्या दशा है ? और उन्हींकी दुर्दशाके कारण राष्ट्रका कैमा पतन होरहा है ? आज हम अंगुलियोंपर गिने जाने योग्य भारतके शहरों की सजी सजाई, शानदार, गगनचुम्बी इमारतोंको देखकर इस देशकी आर्थिक स्थितिका पता नहीं लगा सकते हैं ! नगरों में स्थापित पुस्तकालयों, सरकारी और प्रजासंचालित शिक्षाशालाओं और उनमें प्रचारित बुरी या भली शिक्षा के माध्यमको देखकर हम ग्रामोंकी शिक्षाका अनुमान नहीं लगा सकते हैं। शहरोंकी घनी संख्या, व्यापारकी हलचल व्यवसायकी चहल पहल, रुपयेकी श्रमद तथा शिक्षासंस्थाओं व समितियोंका एकत्रीकरवा देशको सम्पत्ति तथा विद्या जाननेकी कसौटियां नहीं हैं। हमें देश के ६० प्रतिशत निवासियों और उनके श्राश्रितोंकी सच्ची हालत जानने के लिये भारत के साढ़े सात लाख ग्रामोंको देखना होगा। क्योंकि सच्चा भारत ग्रामोंमें रहता है और देशको सचीसमृद्धि ग्रामों की समृद्धिपर अवलम्बित है। भारतीय राष्ट्र के उत्थानका उत्तरदायित्व २६ करोड़ ग्रामीण जनताकं उत्थानका उत्तरदायित्व है। ग्रामीण जनताकी सेवा जनार्दनकी सेवा है । ग्राम भारतीय प्राचीन सभ्यताके निर्मल दर्पण हैं और राष्ट्र संचालनकी कुंजी है। ग्राम कर्मभूमिके द्वार और मोक्षके स्थान हैं। वे भारतीय राष्ट्रकी रीदकी हड्डी हैं । अतः हमें भारतकी प्राचीनतम सभ्यता, शिक्षा, व्यवस्था और धार्मि कताके आदर्शको स्थापित रखनेके लिये ग्रामोंको ही पूर्ववत् अपनाना होगा ।

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