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भनेकान्त
[ वर्षे ६
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नाम, भाषा मय टीका अभिराम । विवेचन स्वतंत्र ग्रंथके रूपमें किया गया है और जो 'अर्थभई भले अथेनिकरियुक्त,जा विधसोसुनिये अव उक्ता" संह' इस सार्थक नामसे प्रसिद्ध है। इसका पर्यालोचन
इस टीकाकी रचना रायमल्ल नामके एक साधर्माश्रावक अथवा स्वाध्याय करनेसे संदृष्टि-विषयक सभी बातोका बांध की प्रेरणासे की गई है, जो विवेकपूर्वक धर्मका साधन करता हो जाना है। हिन्दी भाषाके अभ्यासी स्वाध्यायप्रेमी सज्जन भी था। गोम्मटसारकी टीका बननेके पश्चात् लब्धिसारकी इससे बराबर लाभ उठाते रहते हैं। आपकी इन टीकाश्रोसे ही टीका लिखी गई है। इस टीकाके पूर्ण होनेपर वेल्हादित दिगम्बर समाजमें पुनः कर्मसिद्धान्तके पठन-पाठनका प्रचार दी नहीं हुए; किन्तु प्रारभ्य कार्यक निष्पन्न होनेपर उन्होने बढ़ा है और इनके स्वाध्यायी सजन कर्मसिद्धान्तसे अच्छे अपनेको कतकृत्य समझा । साथ ही टीका पूर्ण होनेसे उन्हें परिचित देखे जाते हैं। जो आनन्द प्राप्त हुआ उसमें मंगल सुखकी कामना करते मोक्षमार्गप्रकाशक और पुरुषार्थमिड्युपायकी टीका ये हुए पंच परमेष्ठीकी स्तुति की है और उन जैसी अपनी दोनों रचनाएँ आपकी पिछली कृतियाँ मालूम होती हैं, जिन्हें दशाके होनेकी अभिलाषा भी व्यक्त की है। यथा:
श्रायु पूरी होजानेसे श्राप पूरी नहीं कर सके है, अन्यथा वे "प्रारम्भो पूरण भयो शास्त्रसुखद प्रासाद । जरूर पूरी की जानी। फिर भी अकेला मोक्षमार्गप्रकाशक अब भये कृतकृत्य हम पायो अति पाल्हाद ॥६० ही ऐसा ग्रन्थ है जिसकी जोड़का दूसरा ग्रंथ हिन्दीमें अभी +
तक देखने में नहीं पाया । यद्यपि पुरुषार्थसिद्धयुपायकी टीका अरहंत सिद्ध सूरि उपाध्याय साधु सर्व रतनचन्द्र जी दीवानकी प्रेरणासे पं. दौलतरामजीने सं. अर्थके प्रकाशी मंगलीक उपकारी हैं। १८२७ में पूरी अवश्य करदी है; परन्तु उनसे उसका वैसा तिनको स्वरूप जानि रागत भई है भक्ति निर्वाद नहीं हो सका है। फिर भी उसका अधूरापन दूर हो कायकों नमाय स्तुतिक उचारी है। ही गया है। धन्य धन्य तुमहीने सब काज भयो
4. टोडरमलजीका रचनाकाल सं० १८११ से १८१८ कर जोरि बारंबार वंदना हमारी है। तक तो निश्चित ही है । फिर इसके बाद और कितने दिन मंगल कल्याणसुख ऐसो अब चाहत है
चला यह यद्यपि अनिश्चित है, परन्तु सं. १८२७ के पूर्व होह मेरी ऐसी दशा जैसी तुम धारी है।
तक उसकी सीमा जरूर है । लब्धिमारकी टीका वि.सं. १८१८की माघशुक्ला +वि.सं. १८११ में रामसिंह (जोधपुरनरेश) ने पंचमीके दिन पूर्ण हुई है, जैसा कि उसके प्रशस्तिपद्यसे __ एक बार फिर गए हुए राज्यको पानेकी कोशिश की और स्पष्ट है:
जयपुर महागज माधवनिह प्रथम और पापाजी रावकी "संवत्सर अष्टादशयुक्त, अष्टादशशत लौकिकयुक्त, सहायतासे मारवाइपर चढ़ाई की।" माघशुलपंचमि दिन होत, भयो ग्रंथ पूरन उद्योत।"
-देखो, भारतके प्राचीनराजवंश भाग ३ पृ. २३६ परन्तु यह ज्ञात नही हो सका कि त्रिलोकसार और
"जयपुर महाराज माधव सिंह (प्रथम) और जोधपुर प्रात्मानुशासनकी टीकाका निर्माण कब किया गया, तथा
नरेश महाराजा विजयसिहमें शत्रुता होगई थी, इसीसे जब 'अर्थसंहष्ट अधिकार' कव लिखा गया, जो संस्कृत टीकागत
वि.सं. १८२४ में भरतपुर के जाट राजा जवाहरसिंहने अलौकिक गणितके उदाहरणों, करणसूत्रों और अंक
- जयपुरपर चढ़ाई की तब विजयसिंहने भरतपुर वालोंकी *रायमल साधर्मी एक । धर्म सधैया सहित विवेक ।
सहायता की थी।" सो नानाविध प्रेरक भयो । तब यह उत्तम कारज थयो ।४७
. -भारतके पा.राजवंश भा.३ पृ. २४. -लब्धिसार टीकाप्रशस्ति ऊपरके इन उद्धरणोंसे यह स्पष्ट है कि जयपुरनरेश संदृष्टियोंका स्पष्ट परिचायक और विवेचक है तथा जिसमें माधवसिंह प्रथमका राज्य वि. स. १८११ से १८२४ तक संख्यात, असंख्यात प्रादिकी संहनानी श्रादिका स्पष्ट तो निश्चित ही है । पं. टोडरमाजीकी उपलब्ध सभी