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किरण
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पं. टोडरमल्ल और उनकी रचनाएँ
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रचनाएँ माधयसिंह प्रथमके राज्यकाल में ही निर्मित हुई है। साता उनके लघुपुत्रमे भी सुनकर ज्ञान प्राप्तिका संकेत करते पं. दौलतरामजी भी पद्मपुराणकी टीका प्रशस्तिमें सं० हुए उनके श्रोताओके समक्ष दीवान रतनचन्द्रजीकी प्रेरणासे २८२७ में जयपुरमें पृथ्वीसिंहका राज्य बनलाते है।
शास्त्रके व्याख्यानका, और दीवान रतनचन्द्रजीकी श्रायु पं. टोडरमल्लजीकी मृत्युके सम्बन्धमें निश्चिन तिथिका पूरी होने तकका भी स्पष्ट उल्लेख करते हैं। ऐमी हालतमें उल्लेख प्रयत्न करने पर भी प्राप्त नहीं हो सका, और न पं. टोडरमल जीको मृत्युकं सम्बन्धमें यदि ऐमी कोई अनिष्ट यही मालूम हो सका कि उनका स्वर्गवास कब और कैसे घटना घटित हुई होनी तो वे उमका उल्लेख किये बिना न हुश्रा है? परन्तु उनकी मृत्युके सम्बन्ध में जो किम्बदन्ती रहते । दुसरे ऐसे विद्वानके सम्बन्धमें ऐसी अनिष्ट घटनाका जैनसमाजमें प्रचलित है कि उनकी मृत्यु हाथीके पैर प्रसंग भी कुछ ठीक मालूम नहीं होता, क्योंकि उनकी तलें दाब कर की गई है'--उसकी यथार्थतामें भार्ग सन्देह परणति भी ऐसी नहीं थी जिससे उन्हें वैसी अनिष्ट घटनाके है; क्यों कि इस बातका समर्थन कहींसे भी उपलब्ध नहीं लिये वाध्य होना पड़ता । अस्तु । होता । न तो समकालीन विद्वान टीकाकार पं.दौलतराम- यहां यह बनलाना भी अनुचित न होगा कि पं. जीने ही उसका कोई उल्लेख किया है और न उनके लघु सुमेरचन्दजी उन्निनीषुने १४ मार्च सन् ४० के जैनसंदेश पुत्र गुमानीगमका ही इस विषय में कोई उल्लेख प्राप्त है अंक ४६ में अपने 'तोडरमल्ल या टोडरमल्ल' नामके लेख इसके सिवाय वसवा निवासी पं. देवीदासजीने भी उनकी में गोम्मटसारकी टीकाको सं. १८२८ में समाप्त करना, मृत्युके सम्बन्ध में कोई संकेत नहीं किया, जब कि वे अपनी और पं. देवीदासकी उक्त प्रशस्तिके आधार पर सं. टीका प्रशस्तिमें उनसे स्वयं सुनने का उल्लेख करते हैं, और १८३८ में उनके साथ धार्मिक समागममें उपस्थित रहना
*"सो दिल्ली सूपढ़िकर वसुवा प्राय पाछै जायपरमें जो प्रकट किया था वह ठीक नहीं है क्योंकि मैं पहले लिख योड़ा दिन टोडरमल्लजी महाबुद्धिवानके पासि सुननेका प्राया हूँ कि गोम्मटसारकी टीका लब्धिसार क्षपणासारकी निमित्त मिल्या, पीछे वसुवै गए । बहुरि वसुवा तें जयपुरमें
टीकाके सं. १८१८ में बननेसे पहले बन चुकी थी अतः गए सो दीवान रतनचन्दजीके धर्मानुगग करि मंदिर विर्षे सं० १८२८ में गम्मटसारकी टीका समाप्त करना बतलाना शास्त्रका व्याख्यान किया, सो टोडरमल्लजीके जे भोना ठीक नहीं है। दूसरे, उनकी मृत्यु भी सं. १८२७ से पहले विशेष बुद्धिवान दीवान रतनचन्दजी, अजवरायजी, निलोक- हो चुकी थी, क्योंकि उनकी पुरुषार्थ सिद्धयपायकी अधरी चन्द पाटणी, महारामजी विशेष चर्चावान श्रोसवाल
टीकाको पं. दौलनरामजीने सं. १८२७ में पूग किया है, क्रियावान् उदासीन तथा तिलोकचंद सोगानी, मोतीराम अत: ऐसी हालतमें सं. १८३८ तक पं. टोडरमल्लजीका पाटनी, हरिचंद, चोखचंद, श्रीचंदजी सोगानी, नैनचन्दजी
जीवित रहना और उनके साथ पं. देवीदासका धार्मिक पाटनी इत्यादि टोडरमल्लजीके श्रोता विशेष बुद्धिवान तिनके
समागममें उपस्थित रहना कैसे बन सकता है। ऐसा प्रकट श्रागे शास्त्रका तो दाख्यान किया और कामा वाला रतन
करना किसी भूलका ही परिणाम जान पड़ता है। पं. चंदजीका कितनेक दिन जयपुरमें सामिल रहना भया,
देवीदासजी देहलीसे वसुवा होते हुए जच पहले जयपुर श्राये तिनके निमित्तते तथा तिनके पीछे टोडरमल्लजीके बड़े पुत्र
तब टोडरमल्लजीसे उन्हें सुननेका अवसर करूर मिला हरचंदजी निनते छोटे गुमानीरामजी महाबुद्धिवान वक्ता था; परन्तु वसवा वापिस जानेके बाद पुन: जयपुर श्राने पर लक्षणक्षारै तिनके पासि रहस्य कितनेक सुनकर कल्लू
__ उन्हें पं० टोडरमल्लनी नहीं मिले, इसीसे उनके प्रभावमें जानपना भया बहुरि फागई वाले जयचंदजी छावड़ा तिनका कर्मके उदयकारे अपना परिका द्रव्यको वाणिज्यके निमित्त संग जयपुरमें भिल्या, ऐसे गुणवान पुरुषनिकी संगति मिली, ते क्षय करि मारीठ विर्षे प्रायो"। -सि०प्र०सं० २१९ सो दीवान रतनचंदजीकी प्रायु पूरी भई निस पीछे दीवान नोट-सिद्धांतसारकी यह प्रशस्ति बा. पन्नालालजी अग्रवाल रतनचंदजीभाई वधीचंदजीप्रति प्रात्सल्यवान् तिनकी प्रीति ते देहलीसे प्राप्त हुई है, मैं उनको इस कृपाके लिये बहुत जयपुरमें कितनेक वरष रहि करि संवत् १८३८ जेठमें कोई प्राभारी हूँ।
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