Book Title: Anekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 304
________________ नयोंका विश्लेषण (ले०-श्री ५० वंशीधर व्याकरणाचार्य) [गतकिरण नं. ७ से आगे] (E) नयोंका लोक-संग्राहक वर्ग व्यक्ति उसका ज्ञान जीभसे रसके जरिये करता है तो जिस जिस प्रकार एक जैनी वक्ता अपने अनुभव और तर्कके । प्रकार एक ही प्रामके बारेमें भिन्न २ व्यक्तियोंको भिन्न २ प्रकारले होने वाले इन ज्ञानोको एक ही व्यक्तिको भिख २ भाधार पर सैद्धान्तिक दृष्टिमे कभी नित्यत्वादि सामान्यरूप और कभी भनित्यत्वादि विशेषरूप तथा माध्यात्मिक दृष्टिसे कालमें होने वाले इस तहके भिन्न २ ज्ञानोंके समान लोक कभी निश्चयरूप और कभी व्यवहाररूप इस प्रकार भिन्न २ में गलत नहीं माना जाता है उसी प्रकार जैनधर्मकी मान्यता के अनुसार सैद्धान्तिक दृष्टिसे वस्तुके सामान्य-विशेषात्मक समयमें प्रयोजनके अनुसार वस्तुका भिन्न २ तरहसे प्रतिपादन करता है उसी प्रकार जैनेनर बकाम भी अपने सिद्ध हो जाने पर यदि एक जैनेतर वक्ता उसका कथन अनुभव और तर्कके आधार पर सैद्धान्तिक रस्सेि कोई सामान्यरूपसे ही करता है और दूसरा जैनेतर वक्ता उसका कथन विशेषरूपसे ही करता है तथा प्राध्यात्मिक दृष्टिले वक्ता तो वस्तुका मिर्फ नित्यत्वादि सामान्यरूपसे ही प्रति. वस्तुके निश्चय-व्यवहारात्मक सिद्ध हो जाने पर यदि एक पादन करता है और कोई वक्ता उसका सिर्फ अनित्यत्वादि जनेतर वक्ता उसका कथन निश्श्रय रूपसे ही करता है और विशेषरूपसे ही प्रतिपादन करता है तथा माध्यात्मिक रष्टिसे दूसर: जैनेतर वक्ता उसका कथन ग्यवहाररूपसे ही करता कोई वक्ता तो वस्तुका सिर्फ निश्चयरूपसे ही प्रतिपादन है तो एक ही वस्तुका भिन्न २ प्रकारसे कथन करने वाले करता है और कोई वक्ता जसका सिर्फ व्यवहाररूपसे ही मित्र वक्ताओंके उन वचनोंको भी जैनी वक्ता भित्र २ प्रतिपादन करता है। इस लिये जिस प्रकार जैनी वक्ताके एक कालमें प्रयुक्त इस प्रकारके भिन्न २ बचोंके समान जैनधर्म ही वस्तुका भित्र २ तरहसे प्रतिपादन करने वाले उन में केवल गलत नहीं माना गया है बल्कि उनमें एक भित्र २ वचनोंमें परस्पर एक दूसरे वचनके साथ समन्वय वाक्यता स्थापित करनेका महान प्रयत्न भी वहां पर (जैन करनेके लिये नवपरिकल्पना द्वारा एकवाक्यता अर्थात् एक धर्म) किया गया है। क्योंकि जैन ममें सैन्त्रांन्तक दृष्टिसे वाक्य अथवा एक महावाक्यके अवयवत्वका स्पष्टीकरण "वस्तु नित्य है" और "वस्तु भनित्य है" ये दोनों परकार जैनधर्मकी मान्यता अनुसार पहिले किया जा चुका है निरपेच-स्वतंत्र वाक्य वस्तमें क्रमसे निस्यता और अनित्यता उसी प्रकार अनेक अजैन वक्ताोंक वस्तुका भिम २ तरहसे का सझाव बत्तखानेकी अपेक्षासे गलत नहीं माने गये हैं, प्रतिपादन करने वाले पूर्वोक्त प्रकारके भिन्न २ वचनों में भी बल्कि प्रथम वाक्य यदि वस्तुमें रहने वाली अमित्यताका परस्पर एक दूसरे वक्ताके वचनोंके साथ समन्वय करनेके विरोध करता है और द्वितीय वाक्य यदि उसमें (वस्तुमें) खिये नयपरिकल्पना द्वारा एक वाण्यता जैनधर्ममें स्वीकार रहने वाली नित्यताका विरोध करता है तो ऐसी हालत में की गयी है। हीन वाक्योंको गलत म्वीकार किया गया है। स्वामी तात्पर्य यह है कि लोकमान्यता अनुसार मामके समन्तभद्रने भी जैनेतर दार्शनिकोंके वस्तुका सिर्फ नित्यरूप-स्पर्श-गंध-रसात्मक सिद्ध हो जाने पर यदि एक व्यक्ति स्वादि सामान्यरूप या सिर्फ अनित्यत्वादि विशेषरूप कथन उसका ज्ञान अखिोंसे रूपके जरिये करता है, दूसरा व्यक्ति करने वाले वचनोंको भासमीमांसाकी १०८वीं कारिका' में उसका ज्ञान हार्थीसे स्पर्शके जरिये करता है. तीसरा व्यक्ति मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न भिथ्यकान्नतास्ति नः । उसका ज्ञान नाकसे गंधके जरिये करता और चौथा निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ॥ .

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