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अनेकान्त
[वर्ष ६
वस्तुतत्त्वका कथन करने वाली है और साधुजनोंको रमाती है-आकर्षित करके अपने में अनुरक्त करती है, (उन मल्लि-जिनकी मैंने शरण ली है।)
यस्य पुरम्ताडिगलित-माना न प्रतितीर्थ्या भुवि विवदन्ते।
भूरपि रम्या प्रतिपदमासीजात-विकोशाम्बुज-मृदुहासा ॥३॥
'जिनके सामने गलितमान हुए प्रतितीर्थिजन-एकान्तवाद-मनानुयायी-पृथ्वी पर विवाद नहीं करते हैं। पृथ्वी भी (जिनके विहारके समय) पद पद पर विकसित कमलोंसे मृदु-हास्यको लिये हुए रमणीक हुई है, (उन मल्लि-जिनकी मैंने शरण ली है।
यग्य समन्ताज्जिन-शिशिरांशोः शिष्यक-सधु-ग्रह-विभवोऽभूत् । तीथमपि वं जनन-समुद्र-त्रासित-सस्वोत्तरण-पथोऽग्रम् ॥ ४ ॥
(अपनी शीतल-वचन-करणोंके प्रभावसे संसार-ताको शान्त करने वाले) जिन जिनेन्द्र-चन्द्रका विभव (ऐश्वर्य) शिष्य-साधु-ग्रहों के रूपमें हुअा है-प्रचुर परिमाणमें शिष्य-साधुओका समूह जिन्हें घेरे रहता था-'जिन का श्रात्मीय तीर्थ-शासन-भी संसार-समुद्रसे भयभीत प्राणियोंको पार उतरने के लिये प्रधान मार्ग बना है, (उन मल्लि-जिनेन्द्रको मैंने शरण ली है।
यस्य च शुलं परमतपोऽग्निानमनन्तं दारितमधाक्षीत् ।
तं जिनसिंहं कृत-करणीयं मल्लिमशल्यं शरणमितोऽस्मि ॥
"और जिनकी शुक्लध्यानरूप परम तपोऽग्निने अन्तको प्राप्त न होने वाले-परंपरासे चले श्राने वाले-दुरितको-कर्माष्टकको-भस्म किया है,
उन (उक्त गुणविशिष्ट) कृतकृत्य और अशल्य-माया-मिथ्यादि-शल्यनित-मल्लिजिनेन्द्रकी मैं शरण में प्राप्त हुआ हूँ-इस शरण-प्राप्ति-द्वारा उस अनन्त दुरितरूप कर्मशत्रुमे मेरी रक्षा होवे।'
आंसूसे
[३] कौन पा रहा है तुम जिसका
अरे वेदनाके सहचर तुम स्वागत करने आये हो।
नप्त दृकयके मृदु संताप । चुन चुन मुक्कामणि सुन्दरतम
उमड़ी पीड़ा की सरिता के हार सजा कर लाये हो।
कैमे अभिनव अनुपम माप ॥
[४] कहो श्राज क्यों प्रकट हुए हो
छलक पड़े तुम दुलकपड़े तुम भग्न-हृदयके मृदु उद्गार ।
मंद मंद अविरल गति धार । कैसे दुलक पड़े दो बोलो
इन विपदाओंके समक्ष क्या कैसा पीड़ा का उद्धार । - मान चुके तुम अपनी हार ॥
हार नहीं यह विजय तुम्हारी सहन - शीलता के सुविचार । अाँख उठा कर देखो रोता हमददी से यह संसार ॥
पं.बाबचंदन 'विशारद