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फिरा ७]
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सुनो राय चिदानंद, कहो जु सुबुद्धि रानी, कहै कहा बेर बेर नैकु तोहि लाज है ? कैसी लाज ? कहो कहां हम कछु जानत न हमें इहां इंद्विनिको विषे सुख राज है। अरे मूढ ! विषै सुख सेये तू अनंतीबार, अज अधायो नांहि कामी शिरताज है । मानुष जनम पाय, चारज सुखेत आय, जो न चेते हॅमराय तेरो ही अकाज है ।
एक सरस कत्रि
सुबुद्धि हे चैतन्य राजा सुनो ।
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चैतन्य -- हे सुबुद्धि रानी ! कहो क्या कहती हो । सुबुद्धि - हे राजा ! मैं बार बार क्या कहूँ तुम्हें कुछ शर्म भी आती है ।
चैतन्य - सुबुद्धि ! शमं कैसी ? मैं कुछ नहीं जानता विषय-सुख-राज्य में मन होरहा हूँ ।
सुबुद्धि - अरे मूर्ख ! तूने अनंत बार विषय-सुखों का सेवन किया। परन्तु तुझे आज एक तृप्ति नहीं हुई । तू बड़ा कामी है --तूने मनुष्य जन्म और आर्यक्षेत्रको पाया है अब भी तू सावधान नहीं होगा और ग्राम- कल्याण नहीं करेगा तो हे चैतन्य तेरा ही बिगाड़ होगा मेरा क्या जाता है ।
कितनी मीठी और हृदयको गुदगुदाने वाली फटकार है, इसमें नाराजगी नहीं है केवल कल्याणकी भावना है । हॅमराय शब्द मानवके महत्वको प्रकट करता है । हंसमें विवेक-बुद्धि होती हैं विवेक-बुद्धि वाला होकर भी तू न समझे तो तेरा ही अकल्याण है ।
वास्तव में सत्काव्य वही है जो भूले हुए पथिकोंको सम्मार्गपर लगावे. तड़पते हुएको सान्त्वना प्रदान करे और जीवन सुधार के मार्गको प्रशस्त बनाये । वह जीवन ही क्या जो दूसरोंको सुख न दे सके और जो संसारको सुखो बनाने का प्रयत्न करेगा वह सबका नायक क्यों न होगा । कविका आदर्श एक अनूठा ही है उसके अन्दर परोपकार की कितनी भावना है उसका आदर्श व्यक्त कैसा होना चाहिए यह इस पथ में पढ़िए
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स्वरूप रिझवारेले, सुगुण मतवारे से, सुधा सुधारे, प्राणिश्यात है ।
सुबुद्धि
सपाट, सुदिपाशा सुमनके सनाहसे, महा बड़े महंत है। सुध्यानके धरैयाले सुज्ञानके करै बासे, सुप्राण परवैया, सुशकती अनंत हैं । संघनायक सबै बोधायकसे, सबै सुखदायकसे, सज्जन सुसंत हैं ।
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जो अपने आपपर मोहित हैं गुणोंमें मस्त रहते हैं अमृतके समुद्र हैं और प्राणीमात्रपर सुंदर दया रखने वाले हैं । अथाह बुद्धि वाले, आत्म-वैभवके बादशाह, मनके मालिक और महान है शुभ विचारोंके रखने वाले, उच्चत ज्ञान वाले, सामर्थ्यशाली, सबसे सुख देनेवाले मधुरभाषी हैं वही नायक सज्जन संत हैं ।
धन्य ! कवि की भावनाएँ कितनी महान हैं उसका उद्देश्य कितना पवित्र है वास्तव में कत्रि हो तो ऐसा ही हो !
आपने अपनी कविताकी रचना केवल जनताको धनुरंजित करने अथवा राजा महाराजाओं को रिझानेके लिये नहीं की थी और न आपको किसी प्रकारके पुरष्कारका ही लोभ था आपने लोककल्याण और आत्मोद्धारके लिये काव्यका आदर्श रखा था आपका काव्य श्रात्म-प्रदर्शक प्रदीप है उससे आत्मप्रकाशकी उज्वल किरयों प्रकाशित होती है वे आमाको अनंतशक्तिको समझते थे अनंत शक्ति शाली आत्मा अपनी सामर्थ्यको भूल जाय यह उन्हें पसंद न था वे उसे उत्तेजित करते हुए कहते हैं:
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कौन तुम ? कहाँ आए. कौने बौराये तुमहिं का रस राचे कछु सुध हूँ धरतु हो । तुम तो सयाने पै सयान यह कौन कीन्हों तीन लोक नाथ है के दीनसे फिरतु हो
तुम कौन हो ! कहांसे आए हो तुम्हें किमने बहका रक्खा है और तुम किसके इसमें मस्त हो रहे हो तुम्हें कुछ इसका खयाल भी है। तुम तो बड़े होशियार हो परन्तु अपनी होशियारी कहां खोदी घरे ! तुम तीनलोकके मालिक होकर भिखारीकी तरह क्यों फिरते हो। मालिक और भिखारी कासा कार्य वाह ! कैसी भत्सना है ।
कवि मानवहृदयकी कमजोरियोंको समझता है वह जानता है कि मानवका आकर्षण क्या है वह कैसे अपनी