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अनेकान्त
[ वर्ष ६
कीर्तन भी-भक्तिपूर्वक नामका उच्चारण भी हमें पवित्र करता है । इस लिये हम आपके गुणोंका कुछ लेशमात्र (यहाँ) कथन करते हैं.।
लक्ष्मी-विभव-मर्वस्वं मुमुक्षोश्चक्रलाञ्छनम् ।
साम्राज्यं माभौम ते जरत्तमिवाभवत् ॥३॥ 'लक्ष्मीकी विभूतिके सर्वस्वको लिये हुए जो चक्रलाञ्छन-चक्रवर्तितत्वका-सार्वभौम साम्राज्य श्रापको सम्प्राप्त था, वह मुमुक्ष होने पर-मोक्ष प्राप्त की इच्छाको चरितार्थ करने के लिये उद्यत होने पर-आपके लिये जीर्ण तृणके समान हो गया-श्रापने उसे नि:सार समझ कर त्याग दिया।'
तव रूपस्य मौन्दर्य दृष्ट्वा तृप्तिमनापिवान् ।
यक्षः शक्रः सहस्राक्षो बभूव बह-बिम्मयः ॥४॥ 'आपके रूप-सौन्दर्यको देख कर दो नेत्रों वाला इन्द्र तृप्तिको प्राप्त न हुआ-उसे श्रापको अधिकाधिकरूपसे देखने की लालमा बनी ही रही-(और इस लिये विक्रिया-द्वारा) वह सहस्र-नेत्र बन कर देखने लगा, और बहुत ही आश्चर्यको प्राप्त हुना।'
मोहरूपो रिपुः पापः कषाय-भट-साधनः ।
दृष्टि-संविदापेक्षास्स्स्व या धीर ! पगजितः ॥५॥ 'कषाय-भटोंकी-क्रोध-मान-माया-लाभादिक की-मैन्यसे युक्त जो मोहरूप- मोहनीय कर्मरूप-पापी शत्र है-श्रात्माके गुणोंका प्रधानरूपसे घात करने वाला है-उसे हे धीर श्रर जिन! आपने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और उपेक्षा-परमौदासोन्य-लक्षण सम्यक्चारित्र--रूप अस्त्र-शस्त्रोंसे पराजित कर दिया है।'
कन्दर्पस्योद्धगे दपस्त्रैलोक्य-विजयार्जितः ।
हृपयामास तं धीरे स्वयि प्रतिहतोदयः ॥ ६॥ 'तीन लोककी विजयमें उत्पन्न हए कामदेवके उत्कट दर्षको-महान् अहंकारको-आपने लज्जित किया है। श्राप धीरवीर-अक्षुभितचित्त-मुनीन्द्र के सामने कामदेव इतोदय (प्रभावहीन) हो गया-उसको एक भी कला न चली।
प्रायस्यां च तदास्वे च दुःखयोनिर्दुरुत्तरा।
तृष्णा-नदी स्वयोसी विद्याजाचा विविक्तया॥७॥ 'आपने उस तृष्णा नदीको निर्दोष ज्ञान-नौकामे पार किया है, जो इस लोक तथा परलोकमें दुःखोंकी योनि है-कष्टपरम्पगको उत्या करने वाली है-और जिसका पार करना आसान नहीं है-बरे कष्टसे जिसे तिरा (पार किया जाता है।'
अन्तकः क्रन्दको नणां जन्म-अधर-सखा सदा।
स्वामन्तकान्तकं प्रौप्य व्यावृत्तः कामकारतः॥८॥ 'पुनर्जन्म और ज्वरादिक रोगोंका मित्र अन्तक-यम सदा मनुष्योंको रुलाने वाला है। परन्तु श्राप अन्तकका अन्त करने वाले हैं, आपको प्राप्त होकर अन्तक-काल अपनी इच्छानुसार प्रवृतिसे उपरत हुया है-उसे श्रापके प्रति अपना स्वेच्छ व्यवहार बन्द करना पड़ा है।'