________________
३४०
अनेकान्त
[वर्ष ६
वस्तुका प्रतिपादन होगा, जो कि प्रतीतिविरुद्ध है; क्योंकि का, मामके सुखके लिये संपूर्ण प्रान्तका, प्रान्तके सुगाके पूर्वोक प्रकारसे नित्यता वस्तुका सही स्वरूप नहीं. बल्कि लिये संपूर्ण राष्ट्रका और राष्टके सुखके लिये उससे संबद्ध स्वरुपका एक अंश है और स्वरूपांशको पूर्णस्वरूप मानना दूसरे राष्ट्रोंका सुखी होना अनिवार्य है। इसलिये यदि यह चूकि राखतो इसलिये उसका प्रतिपादक वाक्य प्रमाणा- मान लिया जाय, कि पशुओका प्राकृतिक जीवन न्यष्टिप्रधान भास ही माना जायगा । इस वाक्यको नय अथवा नयाभास है और मनुष्योंका प्राकृतिक जीवन समाह प्रधान है तो तो किसी भी हालत में नहीं माना जा सकता है। कारण कि असंगत नहीं है। लेकिन इतना मान लेनेपर भी किसी भी "वस्तु अनित्य है" इस वाक्यकी अपेक्षारहित "वस्तु निस्य प्राणीका मूल उद्देश्य अपनी इच्छानुसार अपने जीवनको है" इस स्वतंत्र वाक्यमें नय अथवा नयाभासका लपण सुखी बनाना ही रहता है। मनुष्य भी एक प्राणी है, इस घटित नहीं होता है। तात्पर्य यह है कि यदि परार्थश्रुतको लिये इसका भी मूल उद्देश्य अपने जीवनको सुखमय प्रमाण, नय, प्रमाणाभास और नयामासके रूपमें चार भेदोंमें बनाना ही है। इसी उद्देश्यसे वह समष्टिके साथ सहयोग विभक्त करदिया जाय, तोइन चारोंके लक्षण निम्नप्रकार होंगे- करता है तथा समष्टिके सुखकी कामना भी वह करता है।
(१) एक अंश या अनेक अंशोंद्वारा वस्तु अर्थात अंशी और यहां तक कि इसी उद्देश्यसे वह समष्टिके सुखके का प्रतिपादन करना प्रमाण है। (२) नाना अंशोंमेंसे एक लिये बड़े बड़े कष्ट सहनेके लिये भी तैयार होजाता अंशका प्रतिपादन करना नय।। (३) अंशका अंशीरूपसे है। यही सबब है कि मानव-समाजमें स्वाभाविक तौर पर प्रतिपादन करना प्रमाणाभास है और (४) अनंशका अंश- बुराइयोंके कीटाणुओंका अस्तित्व स्वीकार करना अनिवार्य रूपमं प्रतिपादन करना नयाभास है। इस प्रकार इन चारों मालूम होता है, क्योंकि समष्टि जब व्यष्टिक अभिलषित मेंसे पूर्वोक्त वाक्यमें पूर्वोक्त प्रकारसे प्रमाण अथवा प्रमाणा- अमन-चैनमें बाधक मालूम होने लगती है तो उस समय भासका ही नत्रया घटित हो सकता है। नय अथवा नया- व्यष्टिके हृदयमें समष्टिके प्रति विद्रोहकी भावना जाग्रत भासका नहीं। इसी प्रकार "वस्नु अनित्य है" इस वाक्यके हो जाया करती है। और इस तरह एक व्यक्ति अपने कुटुम्ब स्वतंत्र प्रयोगके बारेमें भी यह प्रकिया घटित करना चाहिये। के साथ, एक कुटुम्ब दूसरे कुटुम्बोंके साथ, एक मुहमा
इस तरह वस्तु-स्वरूप-व्यवस्थामें प्रमाण-माम्यताके दूसरे मुहल्लेके साथ एक ग्राम दूसरे ग्रामों के साथ, एक साथ २ नयोंकी मान्यता कितनी उपयोगी हैयह बात परछी प्रान्त दूसरे प्रान्तोंके साथ और एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों के साथ तरह स्पष्ट हो जाती। इसी नय-मान्यताके बलपर ही विद्रोह कर बैठते है। और इसीलिये अपने ही अपरिमित जैनधर्मकी वस्तु-स्वरूप.व्यवस्था दूसरे दार्शनिकों के लिये ऐश-भारामके लिये भाई-भाई में, कुटुम्ब-कुटुम्बमें, ग्राम-ग्राम दुर्भच बनी हुई है। साथमें यह भी स्पष्ट हो जाता है कि में, जाति-जातिमें प्रान्त-प्रान्तमें और राष्ट्र-राष्ट्रमें न केवल जैनग्रन्थोंमें नयाँका द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय पारस्परिक सहानुभूतिका आभाष ही रहता है बल्कि एक के रूपमें जो म्याख्यान किया गया है वह सैद्धान्तिक दृष्टिसे दूसरेको दबानेकी, कष्ट पहुंचानेकी जो कोशिश की जाती है ही किया गया है।
वह इसीका परिणाम है। यहां तक कि जो वर्तमान विश्व
युद्ध होते हैं उनकी जद भी सिर्फ अपने ही ऐश-बारामकी (७) नयोंका आध्यात्मिक वर्ग
अपरिमित चाहहै। मानव-समाजमें व्यटिकी अपेक्षा समष्टिको अधिक प्राचीन समयमें मानव-समाजके सुखकी घातक ऐसी महत्व दिया गया है। इसका कारण यह है कि मानवसमाज ही प्रतिकूल परिस्थितियों में भारतवर्षके दूरदर्शी, तस्ववेत्ता में व्यष्टिका सुख समष्टिके सुखके साथ अविनाभूत है-अर्थात् __ महात्मामोंने अपने अनुभव और विचार शक्तिके आधार एक व्यक्ति अपने जीवन में सुखी तमी हो सकता है जबकि पर अश्य प्रारमतस्वकी खोज की थी। उनकी इस खोजका उसका कुटुम्ब सुखी हो। इसी तरह उस कुटुम्बके सुखके मूल उद्देश्य मानव समाज में अमन-चैन कायम करने के लिये उसके मुहलेका, मुहल्लेके सुखाके लिये संपूर्ण प्राम लिये उसके अन्त:करणमें समष्टि-प्रधान जीवनके महत्वको