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अनेकान्त
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अलग करनेका प्रयत्न किया करते हैं। प्राणियोंकी दुनियाके हया और इच्छाचाकी वृद्धि काही कारणा होनेके सबब पदार्थों को अपनाने और अलग करने रूप यह प्रवृत्ति कभी संक्लेशको ही पैदा किया करता है" पछाचोंके अभावकभी तो लोकहितके विरुद्ध हुमा करती है और कभी-कभी रूप संतोषम्मे हमें जो सुखानुभव हुश्रा करता है वह स्वतंत्र, लोकहितके विरुद्ध हुना करती हैं। इन दोनों तरहकी स्थायी और निराबाध होनेकी वजहसे हमेशा शान्तिका ही प्रवृत्तियोंमेंसे लोकहितके विरुद्ध होने वाली प्रवृत्तिका कारण कारण होता है। इसलिये ऐसा सुख हरछाओंकी पूर्तिजन्य कर्म के सम्बन्धसे होने वाला मामाके स्वभावका विकार सुखमे कहीं बढ़कर माना गया है और इसीको जैन धर्म में ही माना गया है और इसको जैनधर्ममें 'मोह' नाम दिया सच्चा सुख कहा गया है। लेकिन जब तक हमारी पारमा गया है। इस प्रकार लोकके प्राणी अपने जीवनको सुखी कर्मपर तंत्र है तब तक यह सुख संभव नहीं हो सकता है। बनाने के लिये गग, द्वेष और मोहके वशीभूत होकर ही कारण कि आरमाकी कर्मपरतंत्रतामे प्राणी दुनियाके पदार्थों लोकहित-विरोधी अन्याय, अत्याचार आदि अनर्थरूप में राग, द्वेष और मोहके वशीभूत होकर प्रवृत्ति करता अशुभ प्रवृत्ति किया करते हैं। और जिन लोगोंका मोह हुआ चौरासी लक्ष योनियों में जन्म और मरणको प्राप्त रूप प्रारमविकार कमजोर पड़ जाता है या नष्ट होजाता है होकर कभी तो इच्छाओंकी पूर्ति होने वाले मुखका और वे लोग राग और द्वेषके सद्भावमें पूर्वोक्त शुभ प्रवृत्ति ही कभी इच्छाओंकी पूर्ति न हो सकने पर होने वाले दुःखका किया करते हैं।
ही सतत अनुभव किया करता है । इसीका नाम श्रात्मा प्राणियोंकी अशुभ प्रवृत्ति और शुभ प्रवृत्ति के समान का संसार है । इसको नष्ट करके प्रामाकी स्वतन्त्र,
प्रतिको भी जैनधर्म मानना है और यह शुद्ध प्रवृत्ति स्वाभाविक और मदा श्रानन्दमय अवस्थाको प्राप्त जैनधर्मकी मान्यताके अनुसार मोहके बाद राग और द्वेषका करनेका ही जैनधर्म में उपदेश दिया गया है। इस स्वतंत्र सीअभाव हो जानेपर ही मम्भव है। इसका मतलब यह है अर्थात् कर्मकी परतंत्रत मे रहित, स्वाभाविक अर्थात गग. कि निःस्वार्थ भावसे दूसरे प्राणियोंको सुखी बनानेका जो भी द्वेष और मोहरूप विकारसे शून्य और मदा श्रानन्दमय प्रयत्न किया जाय उसे शुद्ध वृत्ति नाम दिया जा सकता है अर्थात् निराकाँक्षसुखपूर्ण अवस्थाका नाम ही मुक्ति है, जो
और ऐसा प्रयत्न उस हालतमें ही किया जा सकता है जब व्यक्ति इस प्रकारकी मुक्तिको प्राप्त कर लेता है वही व्यक्ति किसने जीवन के बारेमें प्रीणको निरीहता पैदा हो जाय। दूसरे प्राणियोंकी कल्याणभावनामे प्रेरित होकर पूर्वोक्त कोई भी व्यक्ति अपने जीवन के बारेमें निरीह तभी होसकता शुद्ध प्रवृत्ति किया करता है. ऐसी:वृत्ति करनेवाले व्यक्तिको है जबकि उसका जीवन सुखसे परिपूर्ण हो । प्राचार्य जैनधर्ममें "जीवन्मुक्त परमात्मा" नाम दिया गया है। यह कुन्दकुन्दका यह कथन कि 'सबसे पहले अपना हित करो, जीवन्मुक्त परमात्मा ही वर्तमान शरीरके छूटने के बाद जैनइसके बाद ही यदि तुम दूसगेका हित करने में समर्थ हो धर्मकी मान्यताके अनुसार पूर्ण मुक्त हो जाया करता हैतो दूसरोंका भी हित करो' इमी अर्थका पोषक है। अर्थात् फिर कभी भी वह पूर्वोक्त जन्म और मरणकी तापर्य यह है कि प्राचार्य कुन्दकुन्दके मतानुसार भी परम्पगमें नहीं फंसता है। निःस्वार्थ भावनासे केवल दूसरों के हितके लिये कोभी प्रवृत्ति जैनधर्मके ममान सभी आध्यात्मिक धर्मों में संसार की जा सकती है ऐसी प्रवृत्ति करने वाले व्यक्तिका इसके और मुक्ति की प्रायः यही व्यवस्था बतलाई गयी है और पहिले ही पूर्ण सुखी हो जाना आवश्यक है । पूर्ण सुखी संपारको नष्ट करके मुक्ति प्राप्ति का उपदेश देते हुए उसका सोनलिये हमें अपनी जीवन-मम्बन्धी आकांक्षायें ही नष्ट मार्ग भी सभी धर्मोंमें बतलाया गया है । इस करनी होगी; कारण कि आकांक्षाओं की पूर्तिसे हमें जो मार्गको सभी अध्यात्मवादियोंने धर्म' नाम दिया है। सुखानुभव हुमा करता है वह सुख स्वामी समन्तभद्रके जैनधर्मने जो मार्ग बतलाया है और जिसे वह भी शरतमि "पराधीन, अस्थायी, नाना प्रकारक दुलाम घिरा २ कर्मपरवशे सान्त दु:स्वैरन्तरिनीदये । पापीजे सुखे ॥ १ श्राददिदं कादव्वं जर सक्कइ परहिद च कादम्ब ।।
-रत्नकरण्डश्रावकाचार