Book Title: Anekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 278
________________ किरण] नागमध्यताकी भारतको देन के जनसाधारगामें जिम भाषाका चलन था वह प्राकृतभाषा स्व. श्री जायसवालजीके मतसे तो नगर, नागर, ही थी। और मध्यकाल में हाकतके ही शौरसेनी, मागधी. नागरिकता भादि शब्दोंका श्रेय भी नागजातिको ही है। मडागष्टी श्रादि भिन्न भिन्नरूप सम्बन्धित अपभ्रशाम और नागपुर, अहिच्छेत्र, नागनादुक, नागपट्टिनम् . उरगपुर, परिवर्तित होगये, और उक्त. विविध अपभ्रंशोंके ही पातालपुरी, फणिमंडल, फणिपुर, पावापुर नगर, विकभितरूप हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला श्रादि । नगरकोट, तसकशिला धादिमागसूचक बस्तियों के नाम तो श्राधुनिक देशभाषाएँ हैं। अस्तु । प्रत्यक्ष ही अपना सम्बन्ध उक्तनागजातिमे सूचित करते हैं। यह तो निर्विवाद है कि प्राकृत और बादको अपभ्रंश उक्त नागजातिका स्मारक 'नाग-पंचमी' नामक त्योहार भी दोनों 'नाग' था नागर' नामांसे प्रसिद्ध ही और आज भी भारतीय समाज में प्रचलित है। लगभग तीन हजार वर्षसे लगाकर पिछली शताब्दी तक भारतीय अनुश्रांतकी नीनों प्रधान धाराएँ -अर्थात अपने भिन्न भिन्न को समन भारतवर्षके जनमाधारण जैन हिन्दू और बौद्ध--नागवंशों, नागराज्यों, नागकुमारों, की भाषाएँ रही हैं। और नागकन्याभोंक विवरयास भरी पड़ी हैं। जैनांके नागकिन्नु जैग्मा कि विद्वानोंका अनुमान है. नागभाषा न कुमारचरित्र और हिन्दुओंका नागपुराण तो उक्त विषयके मर्गे (पश) की भाषा है, न देवी-देवताओंकीन पानाला स्वतंत्र ग्रन्थ ही हैं। लोककी और न केवल नागद्वीप (लंका) की. यह भापा न यों तो भगवान् ग्रादिनाथके समयसे ही नामांका केवल नीचे बजेके मनुष्योंकी ही भाषा थी और न मात्र नामोल्लेख मिलता है, किन्तु भगवान सुपार्श्वनाथ और नागरों (चतु) वा नागरिकही। बल्कि इन भापाओं पार्श्वनाथकी जीवन-संबंधी घटनाओंके साथ सो नामोंका के 'नाग' नामसे प्रसिद्ध होने का कारण तो यह है कि विशेष और घनिष्ट सम्पर्क रक्षाधर तिहासिक भारतीय इतिहासमें एक दीर्घ काल तक नाग-नामक एक प्रारम्भ ही--अर्थात महाभारत युद्धके बादसही-नागों मुयम्य मानव जातिका ऐसा प्रभुत्व और प्रभाव रहा है की सत्ता उत्तरोत्तर प्रबल होती दीग्य पड़ती है और लगभग जिसके फलस्वरूप देश अथवा राष्ट्रकी भाषा नागभाषा ईस्वी सन् पूर्व १००० से ईस्वी सन् ५००० तक नामसे प्रसिद्ध होगई। भारतीय इतिहासमें प्रत्यक्ष अथवा परोक्षरूपमे नाग-वंशों इतना ही नहीं, ईस्वी मनकी नापरी चौथी शतालीमें और नाग-राज्योंका ही प्रभाव रष्टिगोचर होता है। इनका उगम माथेवन्द लिपि, जिसने शीघ्र ही प्राचीन ब्राह्मी निवास और इनके राज्य भारतव्यापी थे-उत्तरमै तच. तरिका स्थान ले लिया, और जो नागरी लिपिके नामसे शिलामे दक्षिणमें लंकापर्यन्त और पश्चिममें सिन्धुशान्तसे प्रसिद्ध हुई, इन्हीं 'नाग-लोगों' की उपज थी ऐसा स्व. पूर्वमें बंगाजपर्यन्त ना!की सत्ता और प्रभावके चिन्ह बैरिस्टर श्री जायसवालजीका मन है। अाज भी उपलब्ध होते हैं। वास्तवमें जिस प्रकार देवभाषा संस्कृतसे भिन्न सर्व- भारतके प्राचीन इतिहासमै आन्ध्र साम्राज्य के प्रस्त साधारणकी और विशेषतया जैनोंकी भाषा प्राकृतको नाग- और गुप्त साम्राज्यके उदयके बीच लगभग दो मौ वर्षका भाया नाम दिया गया उसी प्रकार उन्हींकी नागरी लिपि समय अन्धकार-युग समझा जाना था। स्व. बैरिस्टर को ब्राह्मणधर्मानुयायी जब अपनी देवभाषा संस्कृतके जायसवालजीने अपने ग्रन्थ 'अन्धकारयुगीम भारत'. नाग लिये प्रयुक्त करने लगे तभीसे उमकी प्रसिद्धि देवनागरी व कारकयुग (१५०-३५०ई०) में यह भली भांति मिद्ध लिपिके नामसे होगई। कर दिया कि उस बीनमें भारतवर्षमें प्रबल नाग-साम्राज्य भाषा और लिपिके अतिरिक्त ऊँची चोटी वाले की स्थापना हुई थी और कुशन साम्राज्याभिलिप्साके अन्त शिखरबन्द्र मन्दिर जिस 'नागर-शैली' के नामसे प्रसिद्ध हैं करनेका श्रेय नागजातिको ही है तथा उन्हींसे गुप्तराजीको स्थापत्य-कलाकी उस शैली के जन्मदाता भी नागलोग ही थे। भारतीय साम्राज्यका उत्तराधिकार मिला।

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