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वैदिक ब्रात्य और भ० महावीर
(लेखक-श्री कर्मानन्दजी)
अथर्ववेदके पन्द्रह काण्डमें एक व्रात्य सूक्त है, एक वर्ष तक एक ही स्थानमें निरंतर पर्वतकी तरह जो कि वर्तमान ऐतिहासिक विद्वानों के गहन अध्ययन निश्चल खड़े रहकर घोर तप किया है इसीलिए इन का विषय बना हुआ है। प्रायः सभी विद्वानोंने इस का नाम प्रती अर्थात् प्रात्य पड़ा जान पड़ता है। पहेलीको सलझानेका प्रयत्न किया. परन्तु यह सल- आज भी जैनसमाजमें अपवारसादिरूप तप-प्रतकी झने के बजाय उलझती ही गयी। अभी हालमें अोझा प्रधानता है, इससे सिद्ध होता है कि यह व्रात्य सूक्त जीको जो अभिनन्दन प्रन्थ दिया गया है उसमें जैनधमकी परंपराका ही परिचायक है। जैनधर्म जर्मनके प्रसिद्ध विद्वान् डा. हावरट्य विगेनने इस भगवान ऋषभदेवसे लगाकब आज सक अहिंसाको पर एक गवेषणात्मक लेख लिखा है। आपका कथन ही परमधर्म मानता है और निरर्थक बैदिक क्रिया
काण्डोंका निषेध करता रहा है। (१) ध्यानपूर्वक निरन्तर दीर्घकाल तक विवेचन अथर्ववेद काण्ड ४. सूक्त ११ मन्त्र ११ में व्रतका के बाद मैं यह कह सकता हूँ कि यह प्रबन्ध (वात्य पर्यायवाची प्रत्य' आया है उसी प्रत्यसे 'व्रात्य' शब्द सूक्त) प्राचीन भारतके ब्राह्मणेतर आये धर्म के मानने बना है-अर्थात् ब्रत्य (ब्रत) को धारण करने वाला। बाले व्रात्योंके उस वाङ्मयका कीमती अवशेष है जो ताण्ड ब्राह्मण १७१-५ में 'ब्रतः' शब्द भाया है प्रायः चुन चुनकर नष्ट किया जा चुका है।
जिसका अर्थ सुप्रसिद्ध वैदिक भाष्यकार श्री सयणा(२) मनीय उपब्राझणसे ज्ञात होता है कि चायने 'त्रात्य-समुदाय' किया है, इससे भी बात और व्रात्य लोग ऊर्वलोकमें स्थित तथा यज्ञादिकी हिंसासे ब्रात्य समानार्थ सिद्ध होते हैं जिसका अर्थ व्रती घृणा करने वाले और 'मोम्' इस अक्षरका गूढ़ मान (दीक्षित) होता है। भी रखते थे।
अथर्व वेदके इसी चतुर्थ काण्डके इसी मन्त्रमें (३) योग और सांख्यके मूलतत्वोंका यही आधार इसको मागबान कहा गया , या आदि स्रोत है।
होता है कि यह व्रत्य लोग मगधादि देशोंके रहने (४) अथर्ववेदका व्रात्य एक वर्ष तक खड़ा रह
वाले थे और इनकी संस्कृति मागध संस्कृतिके नामसे कर घोर तप करता है और चारों दिशाओंकी तरफ
प्रसिद्ध थी, जो कि वैदिक क्रियाकाण्डका प्रत्यक्ष उन्मत्तवत् मौनभावसे भ्रमण करता है।
विरोध था ! यही कारण है कि वैदिक साहित्यमें ५) वह सर्वेश, सर्वदृष्टा और जीवन्मुक्त सममा मगधादि देशोंकी और उसकी निन्दा की गई है। जाता है। इत्यादि ।”
प्रश्नोपनिषद् मुक्तात्मा (परमात्मा) को प्रात्य इस वैदिक प्रात्यके साथ यदि मगवान ऋषभदेव कहा गया है, इससे भी हमारे उपरोक्त कथनकी पुष्टि और बाहुबलि स्वामीके जीवनका मिलान किया जाय होती है। तो देखेंगे कि इनमें कुछ भी अन्तर नहीं है। भगवान सामवेदीय ताएड ब्रामणमें एक 'प्रात्यस्तोम' है, ऋषभदेवने मह महीने तक निश्चल खड़े रहकर खडू- जिसमें ब्रात्योंका विशेष उल्लेख आया है। उसमें गासनसे तप किया और छह महीने तक भ्रमण करते लिखा है कि 'ये लोग वैदिक यज्ञादिसे घृणा करते थे हुए भी निराहार रहे। इस प्रकार इन्होंने १ वर्ष तक तथा पहिंसाको ही अपना मुख्य धर्म मानते थे। निराहार रहकर घोर तप किया। और बाहुबलिने तो इनके रहन सहनके विषय में लिखा है कि-'ये लोग