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अनेकान्त
इस प्रकार के वाक्योंद्वारा अज्ञाननिवृत्तिको प्रमाणका साक्षात् फल माना है ।
समकालीन उपज रहे दो पदार्थों में भी कार्यकारण भाव बन जाता है। जैसा कि अमृतचन्द्र सूरिके निम्न वाक्यसे प्रकट हैकारण-कार्य-विधानं समकालजायमानयोरपि हि । दीपप्रकाशयोरित्र" -पुरुषार्थ सिद्धय पाय ३४
किसी भी ज्ञानद्वारा तत्क्षण अज्ञानका निवृत्ति अवश्य हो जाती है । तभी तो केवलज्ञानीक अज्ञानभावका होना असंभव है । योग्यताको टाला नहीं
जा सकता ।
यदि द्रव्यार्थिकनय या निश्चयनय एकेन्द्रियको सिद्ध समान कहते हैं, तो सिद्धोंको भी शक्तिरूपसे एकेन्द्रिय होजाने की योग्यता कह देने में उनको क्या संकोच हो सकता है ? बात यह है कि जो कार्य नहीं होरहा है उसको रोकने के लिये दृढ़ बाँध बँध रहे हैं ऐसा मानना ही पड़ेगा । लवणसमुद्रका पानी जो ग्यारह हजार अथवा सोलह हजार योजन उठा हुआ है, यदि मचल जाय तो जम्बूद्वीपका खोज खोजाय । किन्तु " न भूतो न भावी न वा वर्तमानः ।" पानीको वहीं डटा हुआ रखनेके लिये अंतरंग स्तम्भनशक्ति और बहिरंग बेलंधर देवोंके मजबूत नगर व्यवस्थित होरहे मानने पड़ते हैं । धर्मद्रव्य कालत्रयमें अधर्म नहीं हो सकता है । सर्वार्थसिद्धिके देव या लोकान्तिक देव भविष्य में नारकी या तिथेच पर्यायको नहीं पा सकते हैं। रूप-गुरण कालान्तर में रस-गुण नहीं हो सकता है । आज महापद्म का जन्म नहीं होता है इन सब कार्योंक लिये अनेक प्रागभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभावकी बलवत्तर भातें खड़ी हुई हैं। बनारसी दलालोंक समान ये सब व्यक्त-अव्यक्तरूपसे साथ लगे हुए हैं । अगुरुलघु-गुण भी अन्य व्यावृत्तियों के करने में अनुक्षण अड़कर जुटा हुआ है ।
"सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्याऽपोहव्यतिक्रमे ।” -आप्तमीमांसा इत्यादि आचार्यवाक्य भी इसी बातको पुष्ट करते है । छेदोपस्थापना-संयमके मर्मस्पर्शी विद्वान् इस तत्व
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को शीघ्र समझ जायेंगे । यों केवलज्ञानको सवेदा अज्ञाननिवृत्ति करनी पड़ती है । श्री माणिक्यनन्दी, विद्यानन्द स्वामी और प्रभाचन्द्रने अनेक युक्तियों से अज्ञाननिवृत्तिको ज्ञानसे अभिन्न ही बतलाया है और सिद्ध किया है'। पहिले क्षणका दीपक और लगातार घन्टों तक जल रही मध्यवर्ती दीपककी लौं भी उस तमोनिवृत्तिको सतत् करते ही रहते हैं । यदि मध्यवर्ती द्वितीयादि क्षणोंमें तमोनिवृप्ति न हो तो वही निविड़तम तम आधमकेगा । अतः प्रकाशस्त्रभाव तमोनिवृत्तिकी तरह स्वार्थनिर्णीति स्वभाव ही अज्ञाननिवृत्ति है ।
महान् नर-पुङ्गवों में भी कुकर्म करनेकी योग्यता है, परन्तु अपने स्वभावोंके अनुसार महान पुरुषार्थ करते हुये उन पापकर्मोंस बचे रहते हैं । पुरुषार्थ में ढील हो जाने से माघनन्दी और द्वीपायन मुनि अपने ब्रह्मचर्य और क्षमाभावसे स्खलित होगये थे । श्री अकलंकदेवने अप्रशती में "यावन्ति पररूपाणि, प्रत्येकं तावन्तस्ततः परावृत्तिलक्षणाः स्वभावभेदाः प्रतिक्षणं प्रत्येतव्याः " इत्यादि प्रमाणों द्वारा वस्तुतत्वको पुष्ट किया है । श्रभावात्मक धर्मोके जौहरोंका अन्तःनिरी क्षरण कीजिये |
तत्त्रोंका केवलज्ञान और अज्ञान दोनों परस्पर में व्यवच्छेदरूप धर्म है। दोनोंमेंसे किसी एकका विधान कर देनेपर शेषका निषेध स्वतः होजाता है । केवलज्ञानके स्वीकार के साथ लग्रे हाथ ही अज्ञान निवृत्ति न माननेपर "वदतो व्याघात" दोष आता है । अतः केवलज्ञानका अनिनिवृत्ति होना शाश्वत अनिवार्य फल है । भाव आत्मक कारण, कार्यों में भले ही क्षणभेद हो । किन्तु प्रतिवन्धकाभावरूप कारण और प्रागभाव - निवृत्ति आत्मक कार्य इन कारण- कार्यों में क्षणभेद नहीं है। प्रकरण में ज्ञानावरणक्षय (केवलज्ञान) और अज्ञाननिवृत्ति में क्षणभेद नहीं है। दोनोंका समय एक है और दोनों एक ही हैं ।
१ देखा, परीक्षा मुख ५.३, तत्वार्यश्लोकवा० पृ० १६८, प्रमाणपरीक्षा पृ० ७६, प्रमेयकमल० ५- १, २, ३ ।