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अनेकान्त
[वर्षे ६
'जो (एकान्तवादी जन) परमें-अनेकान्तमें-विरोधादि दोष देखने के लिये उनिद्र--जागृत-रहते हैं और अपने में-सदादि एकान्तमें-दोषों के प्रति गज-निमीलनका व्यवहार करते हैं--उन्हें देखते हुए भी न देवनेका डौल बनाते है-वे बेचारे क्या करें?-उनमे स्वपक्षका साधन और परपक्षका दूषण बन नहीं सकता। (क्योंकि वे आपके अनेकान्त मतकी (यथार्थ वस्तुस्वरूप-विवेचकत्वलक्षणा) श्रीके पात्र नहीं हैं-सर्वथा एकानपक्षको अपनानेसे वे उसके योग्य ही नहीं रहे।'
तेतं स्वघातिनं दोष शमीकमनीश्वराः ।
स्वरिषः स्वहनोबालास्तस्वावक्तव्यतां श्रिताः॥१५॥ 'वे एकान्तवादी जन, जो उस (पूर्वोक्त ) स्वघाति-दोषको दूर करनेके लिये असमर्थ हैं, आपकोश्रारके अनेकान्तवादको-दोष देते हैं,मात्मघाती हैं-अपना घात श्राप करते हैं, और यथावद्वस्तुस्वरूस अनभिज्ञ-बालक है उन्होंने तत्वकी प्रवक्तव्यताको आश्रित किया है-वस्तुतत्व अवक्तव्य है ऐसा प्रतिपादन कया है।'
सदेकनिस्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नयाः ।
सर्बथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीहितं ।।१६।। 'सत , एक, नित्य, वकव्य और इनके विपक्षरूप असत् , अनेक, अनित्य, अवक्तव्य ये जो नयपक्ष हैं वे सर्वथा-रूपमें इष्टको दूषित करते हैं और स्यात् रूपमें इष्टको पुष्ट करते हैं। अर्थात् सर्वथा सत्, मवथा असत्, सर्वथा एक (अद्वैत) सर्वथा अनेक, सर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य, सर्वथा वाताव्य और सर्वथा प्रवक्तव्य रूपमें जो मत-पक्ष हैं, वे सब दूषित (मिथ्या) नय --स्वेष्टमें बाधक हैं। और स्यात् सत् , स्यात् असत्, स्यात् एक, स्यात् अनेक,स्यात् नित्य, स्यात् अनित्य, स्यात् वक्तव्य और स्यात् अवक्तव्यरूपमें जो मत-पक्ष हैं, वे सब पुष्ट (मम्यक) नय है-स्वकीय अर्थका निर्वाधरूपसे प्रतिपादन करने में समर्थ हैं।'
सर्वथा-नियम-त्यागी यथादृष्टमपेचकः ।
स्थाच्छन्दस्तावके न्याये नान्येषामात्मविहिषाम् ॥ १७॥ 'सर्वथारूपसे--सत् ही है, असत् ही है, नित्य ही है, अनित्य ही है इत्यादि रूपसे प्रतिपादन के नियम का त्यागी, और यथादृष्टका-जिस प्रकार सत्-असत् श्रादिरूपसे वस्तु-प्रमाण-प्रतिपन्न है उसको-अपेक्षामें रखन वाला जो 'स्यात् शब्द है वह आपके-अनेकान्तवादी जिनदेवक-न्यायमें है, (त्वन्मत बाघ) दूसरोंकेएकान्तवादियोंके-न्यायमें नहीं है, जो कि अपने वैरी आप हैं।'
अनेकान्तोऽप्यनेकान्त: प्रमाण-नय-साधनः ।
अनेकान्तः प्रमाणाते तदेकान्तोऽर्षितात्रयात् ।।१८।। 'आपके मतमें अनेकान्त भी सम्यक् एकान्त ही नहीं किन्तु अनेकान्त भी प्रमाण और नयसाधनों (रष्टियों) को लिये हुए अनेकान्तस्वरूप है-कश्चित् अनेकान्त और कथञ्चित् एकान्तरूप है । प्रमाण दृष्टिसे अनेकान्तरूप सिद्ध होता है (सकलादेशः प्रमाणाधीन:' इस वाक्यक प्राशयानुसार) और विवक्षित नयकी *एकान्तबादी परके बैरी होनेके साथ साथ अपने वैरी आप कैसे हैं। इस बातको सविशेष रूपसे जाननेके लिये 'समन्तभद्र-विचार-माला' का प्रथम लेख 'स्व-पर-बैरी कौन ? देखना चाहिये, जो कि 'अनेकान्त' वर्ष ४ की प्रथम किरण (नववर्षा) में प्रकाशित हुया है।