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अनेकान्त
[ वर्ष ६
स्वागत विधि जानी नहीं, कैसौ क्रिया कलाप । चूक टूक यदि होय तौ, चमा कीजियो पाप ॥१२॥ स्वागत तुम चाहत नहीं, नहिं स्वागत सौं नेह । केवल निज कर्तव्य बश, भेटै सहज सनेह ॥३३॥ श्रावक नर माहारमा पै, अवर लिखै न एक। जीवन मुक्त विचारक, विरद बखानी नेक ॥३४॥ हाजरीन जजसा तिन्हें, विनय करूं कर जोर । सब साहब मिल कर कहौ, जय जय जुगलकिशोर ।।३५॥
श्री मुख्तार साहबके प्रति
श्री कपूरचन्द जैन 'इन्दु'
तन मन धन सर्वस्व सब, दियौ दान भरपूर । अनुग्रह निज पर 4 कियौ, कियौ मोह तम दूर || 100 मेहा, नाता मच्छिते, तोरी तत्व विचार । नहीं तो सजती वह तुम्हें, यही वस्तु व्यवहार ॥॥ भनेकान्त अभ्यास ते. अनेकान्त वर पत्र । करत बनेकों हदय पै, अनेकान्त को छत्र ॥२०॥ मैं मैं तू तू मिट गई, प्रामनाय वा पंथ । कियो संगठन प्रेम साँ, दियौ मंत्र सद ग्रंथ ॥२१॥ खेंच तान मति भेद को, मची हुतौ प्रतिशोर । किये एक सबबंधुवर ! जय जय जुगलकिशोर ॥२३॥ कोटि कोटिके दान की, उतनी गिनून मान । पर्व बपके दानको, जितनी है गुनगान ॥२३॥ जौ लौ जल जमुना घरै, जो ली गंग तरंग। ती जौं निवसौ शर्म सह, धर्म मर्म सतसंग ॥२४॥ उदय और सत्ता धरै, जो जी प्रत्याखान । तौली पल सरधानके, करी स्वपर कल्याण ॥२५॥ पुस्तक मेरी भावना, और अनेकों ग्रंथ । अजर अमर होकर रहे, वरणावें शुभ पंथ ॥२६॥ जितनी हिन्दी हिन्दकी, बनै शक्ति भर सेव । साहस सहित सम्हारियो, यही बिनय देव ॥२७॥ सेवक श्रावक पै सवा, सरधा सहित सनेह । नाती नित्य निभाइयो, प्रेमपुंज गुण गेह ॥२८॥ नर पुगध ऐसे महा, एरी ! जैन समाज । पाये तूने कौनसैं, सो बतला दे माज ॥२६॥ दावा सूरजभानकी, . सतसंगति रमनीक । गुरु गुरु, चेला खांडकी, फली पहेली ठीक ॥३०॥ बाबा सूरजभानके, जानौ दो संतान । पहले जुगलकिशोर डी, पुनि शुभवंत सुजान ॥३१॥
माहित्यिकके सुसम्मानका, भाया है मनको निश्चय । सुगम नहीं देना पर मुझको पूज्य वयोधिकका परिचय ।। गुणराशि सामने रखने में कुछ न्यूनाधिक हो सकता है। बाहुल्य गुणोंका देख मनुज, अत्युक्ति सत्यमें कहता है। पर सत्य न दाबे दबा कभी, व्यापक उसके अणु नभतल में फिरता समीर है लिए-लिए उसको विहलसा भूतल में !! मुख-मुखसे कर्णागत होता, हृत्तार-तारसे यह संगीत ! मुख्तार तुझीसे वर्तमान, कहलाएगा पावन अतीत !! कर पुरातत्वका अनुशीलन, जो दिखा सके गौरवलाली ! सदियों तक दीप्तिमान होगी, वह नहीं कभी मिटनेवाली! हैं बहुत तुच्छ सम्मान-हेतु, जो कुछ भी जुटपाएँ साधन! सन्तोष इसीसे करलेंगे, कुछ मिटा हृदयका सूनापन !! मिलता नवीन उत्साह रहा; पा उत्साही नायक प्यारा! सागरकी ओर उमड़ती हैं, जैसे वर्षा की जलधारा ॥ श्रीमान् श्रापकी छिपी नहीं, साहित्यिक-सेवाएँ जो की। अपनी अनुपम-प्रतिभा द्वारा, अनुभूति भारतीमें भरदीं।