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मेरा अभिनन्दन
( विद्वदूर श्री पं. माणिकचन्द्रजी, न्यायाचार्य सहारनपुर )
पण्डित जुगलकिशोरजी समाज के उपकारी हैं । वर्षोंसे वे समाजकी निःस्वार्थ सेवामें लगे हैं । पूर्वा चार्योंके समय, स्थितिनिर्णय, पूर्वाभाव, तत्कालीन परिस्थितियाँ, मन्थनिर्माण, प्रक्षेपणशोध, प्रन्थचार्य गवेषण, छापा पड़ना, प्राचीनता आदि अनुसन्धानसम्बन्धी इनके कार्य प्रशंसावह हैं, इनमें कार्य करने की लगन है । प्रन्थसूची लक्षणावली पारिभाषिक शब्द कोष बनाना ये इनके अनुपम काय हैं । ' अनेकान्त' पत्र भी गरिमापूर्ण है। दिगम्बर जैनाचार्योंके प्रति भक्ति और विशेषरूपेण न्यायसूर्य श्री समन्तभद्र भगवानकी सपर्यानुसार पण्डितजीका क्षयोपशम विशुद्ध होगया है । न्याय, व्याकरण, काव्य, छन्दः, दर्शन विषयों में भी पण्डितजीको तीक्ष्ण मनीषा प्रवेश कर जाती है । सच्चरित्र और दृढ़ अध्यवसायका यह फल है ।
सद्गृहस्थको उचित है कि वह सर्वदा जैनशासन के प्रद्योतक ऐसे विद्वानों का सत्कार करे ।
पण्डितजीने वीरशासनके कतिपय प्रेमियोंका साङ्गोपाङ्ग अविकल स्वोपज्ञ उद्धार किया है । अतः कृतज्ञ समाजको इनका सम्मान करना आवश्यक ही था ।
"यजन् गुण-गुरून् कृतशोबशी" यों भावकके १४ गुणों में कृतज्ञताप्रधान गुण है । "अन्यदृष्टि प्रशंसा संस्तवा” को सम्यग्दर्शनका प्रतीचार बताते हुये श्री
उमास्वामी महाराजने व्यतिरेक मुख पुष्ट किया है कि जैनदृष्टि नरपुङ्गवको प्रशंसा, स्तुति करना धर्मका पोषक है। "गुणिषु प्रमोद” को तो हम भावते ही रहते हैं ।
६७ वें वर्ष में यह सम्मान समारोह किया गया, यह तो पहिले ही होजाना चाहिये था, अस्तु । सुबह का भूला शामको घर आगया। इसके अनुसार आज भी गुरियोंके आदर का यह मार्ग प्रदर्शन शुभ लक्षण है । इस युगमें ही बाबू देवकुमारजी, देवेन्द्रप्रसादजी, सेठ माणिकचन्द्र जी, गुरु गोपालदासजी, पंडित वलदेवदासजी, बाबू अनन्तरामजी, लालमनजी प्रभृति ऐसे नररत्न होगये हैं कि जिनके उपकारोंसे हम रोम रोम भरे पड़े हैं। आज अनुताप कर रहे हैं कि इनकी जीवित अवस्थामें ही हम कोई सम्मान प्रदर्शन का प्रकरण नहीं रच सके । 'गतं न शोचामि' अब तो यह गुणादरका प्राथ मंगलाचरण पंक्तिबद्ध होजाय ऐसी शुभ भावना है।
मैं इस समारोह में घनीय परिस्त जुगलकिशोर जीका अभिनन्दन करता हूँ । परिहतजी भविष्य में उत्साहपूर्वक आचार्य परम्पराके सदुपदेशोंकी गूँज देश देशान्तरोंमें व्यापक कर देवें, ऐसी भावना भावता है ।
शीर्षक पहले
पण्डित जुगलकिशोरजीके लेख लिखनेका ढंग यह है कि वे पहले शीर्षक लिखते हैं और तत्र लेख | शीर्षक लिखनेमें वे काफी परिश्रम करते हैं और चाहते हैं कि उसमें लेखकी रूपरेखा का पूरा निर्देश हो; जैसे वे जीवनमें पहले योजना बनाते हैं और तब उस पर कार्यारम्भ करते हैं।
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