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अनेकान्त
[वर्ष ६.
हा, तो मुख्तार साहब मुझसे यहाँ श्रीवास्तव प्रेपमें मिल अक्सर ऐसे महत्वपूर्ण संशोधन करते हैं, जो मूल प्रतिमें कर बहुत प्रसन्न हुये और अनेकान्त' की छपाईका काम नहीं होते। भाषाके प्रवाहमें शब्दोंका फिटिंग और व्याकरणप्रेसको दे दिया। प्रेसके सारे टाइप मापने उसी तरह देखे, व्यवहारकी मावधानीसे सम्बन्ध क्रियाओंका अदल-बदल उनपर बातें कीं और जो निर्णय हुए, उन्हें प्रेयमालिकसे उनका बहुत ही मार्मिक होता है। उनके प्रफका संशोधन लिखा लिया। यह ६१ की बात है. तबसे फिर बराबर करते समय भाषा-शद्वार करनेका-सा श्रानन्द याताहै। उनकी प्रकाशन नीतिका अध्ययन करनेका अवसर मुझे मिल प्रफ-संशोधन और प्रकाशन व्यवहारमैं इतने पठोर होकर रहा है। उनके प्रकाशनकी सबसे पहली बात यह है कि वे भी वे व्यक्तिगत व्यवहार में अत्यन्त कोमल हैं। प्रेसमें उस शतें खूब कसकर करते हैं । समयकी पावन्दी, छपाईके रेट, आप पाते हैं तो सभी कर्मचारियोंसे बड़े स्नेहके साथ प्रफके नियम, सबको जहां तक खींच सकते हैं. खींचते हैं,
मिलने हैं, और उनके काममें हाथ साफ न होनेपर भी और फिर कढ़ाई के साथ दोनों ओरसे उनकी पाबन्दी चाहते
उनसे हाथ मिलाने में उन्हें ज़रा भी संकोच नहीं होता। है। परन्तु जहां वे प्रकाशननीति में इतनी कठोर-दृष्टि रखते
यह उनकी नम्रता और शिष्टाचारकी महानता है। हैं, वहां व्यवहारमें अमली तौर पर अत्यन्त नम्र और
प्रफके साथ प्रेमको हिदायतें देनेके लिये जो पत्र वे उदार भी हैं।
लिखते हैं, उनका एक अच्छा संग्रह में पास हो गया - वे अपने जीवन में अन्यन्त नियमित है. अत्यन्त व्यव- है। इन पत्रोंसे उनके स्वभावपर बहुत ही सुन्दर प्रकाश स्थित हैं और अपने प्रकाशनमें भी वे वही नियमन और पड़ता है। जिनके कुछ उद्धरण यहां दे रहा हूंव्यवस्था चाहते हैं। मुझे उनकेद्वारा सम्पादित मूलकापियां ४-६-४३ के एक पत्र में उन्होंने लिखा है-'कल से देखनेका और उनमे कुछ सीखनेका सौभाग्य बराबर प्राप्त बाबू त्रिलोकचन्द्रद्वारा प्रफका माना-जाना नहीं हो सकेगा। होता रहा है--उनके प्रकाशनमें गहराई के साथ गम्भीर अत: अपनी उस योजनानुसार या तो ६ बजेकी गाड़ीस अध्ययन करनेका अवसर मिला है। इसीलिये मैं जानता हूं बाबू साहब प्रफ सरसावा पहुंचा देवें और हमें आज ही कि वे अपने प्रकाशनमें कितना परिश्रम करते हैं। दूसरे सूचित कर देवें, जिससे परसावा स्टेशनपर समयपर अपना लेखकोंके लेख चारों तरफ रंग डालते हैं। भाषाकी अशुद्धि प्रादमी पहुंच जाये और या ४ पेज एडवांस तय्यार करके वे सह नहीं सकते, शब्द-संगठन जब तक उन्हें जेंच न बराबर डाकसे प्रफ भेजा कर और जिस प्रफके साथमें मूल जाये, बराबर संशोधन किये जाते हैं और संकेत चिन्होंके कापी हुश्रा करे उसे रजिस्ट्रीसे भेज दिया करें । रेलसे प्रफ सम्बन्धमें तो इतने सावधान हैं कि हिन्दीमें उसका जोब भेजने में एक मासका रेल्वे टिकट ले लेना ज्यादा अच्छा , मिलना मुश्किल है। श्री पं. शंकरलालजीने एकबार ठीक होगा. वह बहुत सस्ता पड़ता है। जैसी कुछ योजना हो ही कहा था कि 'अनेकान्त' से लोग लिम्बना सीखते हैं। आज ही उससे सूचित कर दीजिये और प्रफ बगबर निय
प्राचीन साहित्यके अनुसंधाता होने के कारण वे जानते मित रूपसे अपने वादेके अनुसार भेजते रहिये ।...." है कि लिखाईकी अशुद्धियाँप. पाठकोंको समन्वय करने में प्रफकी व्यवस्थाके लिये भाप सदैव इसी प्रकार सचेष्ट कितना परिश्रम करना पड़ता है, इसलिये छपाईकी अशुद्धि रहते हैं, पर समयपर प्रफ न पहुंचनेसे भापकी जो गति से उन्हें चिढ़ है। मैंने बराबर देखा है कि छपी हुई अशुद्धि होती है, १७-६-४२के पत्रसे प्रगट है-"प्रत्यन्त अफपढ़कर वे बेचन-से होजाते हैं। अभी वर्ष किरण के सोसके साथ लिखना पड़ता है कि भापने परसों ही प्रफ एक लेख में प्रेसकी भूजसे अशुद्ध रह गई, बस गुस्सेसे भर भेजनेका मुझमे वादा किया था, परन्तु कल भापका प्रफ गये और कहा कि यह फार्म अपने खर्च पर दुबारा छापो! नहीं पाया और न माज ही भाया है! मेरे वहां मानेका बड़ी मुश्किलसे इस बातपर राजी हुए कि प्रेस 'भनेकान्त' भी कोई असर हुमा मालूम नहीं होता। नहीं मालूम इस में भूलसुधारके साथ इसकी चमा याचना करे ।
सबका क्या कारण है?" प्रफ पढ़ते समय के तहीन होजाते हैं और उस समय इसी पत्र में भागे मापने लिखा है-"यदि कल भी