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अनेकान्त
[वर्ष ६
परिहार करते हुए बतलाया है। यथा--
बतलाते हुए भी नहीं गया यह माश्चर्यकी बात है ! 'समूह' "तथा चोक्तम् -'न तक्रदग्ध:प्रभवन्ति व्याधयः इत्यत्र शब्द हिन्दीमें रूढ है इस लिये 'दुःख' शब्दके साथ समाम "परस्पृष्टमन्तस्थानान्" इति वचनात न छंदोभंगः शङ्क- होने में कोई बाधा नहीं पाती। इसके सिवा, हिन्दी और नीयः ।" (यशस्तिलक पूर्वाधं पृ० ११८)
संस्कृत शन्नोंका समाम भी होता है-न हो सकनेका संयुक्ताचं दीर्घ' के नियमानुसार 'प्रभवन्ति' पदका कोई कारण प्रतीतिमें नहीं पाता। ऐसे कितने ही उदाहरण अन्तिम अक्षर दीर्घ होना चाहिये और दीर्घ होनेसे छंदो- उपस्थित किये जा सकते हैं, जिनमें हिंदी शब्दोंके साथ भंग होता है, परन्तु भगले संयुक्ताक्षरमें अन्तस्थ वर्णक संस्कृत शब्नोंका समास पाया जाता है। रहनेसे उसका दीर्घ होना लाज़िमी नहीं रहा, और इस मैं मममताई यह उत्तर मापके पमाधानके लिये काफी लिये छदोभंगका दोष भी नहीं रहा, यही बात यहीं स्पष्ट होगा। और कोई सेवा हो तो मूचित कीजिएगा। करके बतखाई गई । इससे भी आपकी बतलाई हुई
भवदीय अधिकांश वृटियां बटियां नहीं रहतीं एकको छोड़कर सभी ___ ता. २०-८-१६४२
जुगलकिशोर संयुक्तवों में एक या दो अंतस्थ वर्ण पर्व हुए हैं। प्रिय महानुभाव पीनेमचन्द बालचन्दजी गांधी,
प्रिय महानभाव नीमच वृत्तरत्नाकर' में पावके मादिमें जो संयोगी वर्ण हो
सस्नेह जयजिनेन्द्र । उसे 'क्रमसंज्ञित' लिखा है और ऐसा क्रमसंज्ञित वर्ण यदि
प्रापका सजावपूर्ण उत्पन्न मिला, पद कर प्रमाता परभागमें हो तो पूर्वका वर्ण गुरु होते हुए भी कचित लघु हई। मेरे व्यक्तित्व विषयमें आपने अपना जो ऊँचा भाव होता.ऐसा निर्देश किया है। साथ ही, उदाहरण द्वारा व्यक्त किया है उसके लिये आभारी है। साथ ही, मेरे उम स्पष्ट करके बतलाया है। यथा
समयका भाप इतना अधिक खयाल रखते हैं, इसके लिये "पादावाविह वर्णस्य संयोगः क्रमसंशितः ।
धन्यवाद है। परस्थितेन तेन स्यासधुताऽपि कचिद्गुरो .
मेरे जिस पालोचनात्मक लेखकी भोर मापने इशारा उदाहरण-तरुण पर्षपशाकं नवीदनं पिच्छिलानि च दधीनि। झ्यिा है उसका शीर्षक है-- लेखक जिम्मेदार या मम्पा
पम्बयेन सुंदरि ! प्राग्यजनो मिष्टमभाति ।" दक?' मैंने इसकी पाण्डुलिपि (मूलप्रति) को निकाल कर इस नियम के अनुसार 'सोभ नहीं मुझको भावे' इम देखा तो मालूम हुमा कि उसमें यह कहीं भी नहीं लिखा पादके शुरुमें 'को' अक्षर 'कमसंज्ञित' है और इस लिये है कि "संस्कृत काव्य-नियमोंका पालन हिन्दी कवियों को भी इसके पूर्व 'पर' शब्दका 'अक्षर उसी प्रकारमे दीर्ध नहीं करना चाहिये," और न मेरी वह समालोचना 'संयुक्ताक्षर है. जिस प्रकार कि ऊपरके उदाहरणमें 'ग्राभ्यके' पूर्व 'सुंदरि' मे पूर्वका अक्षर दीर्घ होनेके नियम पर ही अवलम्बित थी,' शब्दका 'रि' मार दीर्घ महीं है। अतः इस दृष्टिसे भी जैसा कि भाप लिख रहे हैं। उसमें इस नियमका उल्लेख दी होकर चोभंग होनेकी भापति म्यर्थ ठहरतीहै। तक भी नहीं। वह लेख अनसन्देश (२.मा मन
बरही शेष दो भापत्तियाँ; 'या उसको स्वाधीन १९३८के बादके किसी अंकमें) प्रकाशित हुआ। फिर कहों इस चाणमें मुझे दुर्गेधता कुछ भी मालूम नहीं भी मैं संस्कृत काम्यनियमोंके पालनका विरोधी नहीं है, होगी। स्वाधीन कहों स्थानमें जो मापने 'कुछ और कहो' उनका पूर्णत: पालन यदि हिन्दी कवितामें किया जाता है सुमाया। वह मुझे ऊँचा नहीं-'स्वाधीन' पदमें जो भयं- तो मेरे लिये उसे अनादरकी दृष्टिसे देखनेका कोई कारण गौरव है और महत्वका भाव सविहित है वह कुछ और नहीं हो सकता। मेग तो इतना ही कहना है कि हिन्दी कहो' में नहीं पाता। इसी तरह 'दुख समूह' के स्थान पर काव्यसाहित्य सर्वथा सस्कृत-काग्य-नियमों पर अवलम्बित 'दुःख निय' कर देनेकी बात भी मुझे नहीं ऊँची। 'समूह' नहीं है-उसके अपने भी नियम है, जिन्हें सर्वथा उपेक्षशब्दकी अपेक्षा 'निचय' शम्ब कितना दुर्गेध और अप्र. खीय नहीं कहा जा सकता। जांचके समय उन पर भी पबित है, इस पर भापका ध्यान 'स्वाधीन' पदको दुर्बोध ध्यान जरूर रखना चाहिये और इस खिये मैंने पूर्वग्नमें