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मुख्तार साहबके परिचयमें (श्री ज्योतिप्रमाद जैन, विशारद बी० ए० एल०-एल० बी०, लखनऊ)
लगभग बीम वषकी बात है । मैं ९-१० वर्षका ताएँ "मीन संवाद" और "अज सम्बोधन" बड़े बालक ही था। मेरठ शहरमें एक वेदी-प्रनिष्टा-महोत्सव भावुक ढंगसे सुनाने लगे। बस्थित ताथे स्थानके था। उमा अवसर पर वहाँ सुधारवादियोंका भी एक शून्य कोने में सन्ध्याक अन्धेरेमें कवि अपनी मुख्तार साहिबक सभापतित्वमें एक जल्सा हुश्रा। कविता स्वयं भाव पूर्ण ढंगमें सुनायें-और सुनने किन्तु जल्समें हो हुल्लड़के कारण इच्छा रहने भा मैं वाले मूक गद्गद् सुनें । यही भास होता था कि जाल पूज्य मुख्तार साहिबको न चीन्ह सफा । हाँ हृदय पट बद्ध निरपराधी मीन स्वयं ही बोल रहा हैपर एक भव्याकृति, श्वेतकंश, खद्दरधारी, गम्भीर मुख
"सोचूँ यही क्या अपराध मेग, युजुगेकी अस्पष्ट सी स्मृनि बनगई।
न मानवोंको कुछ कष्ट देता !" उसके दो वर्ष पश्चात हस्तिनापुरके कार्तिकी मेले
और अपने संवादके बहाने प्रस्तुत सांसारिक पर फिर सुधारक दलने एक जोरका आयोजन किया। मुख्तार माहिब ही सभापति थे। दस्सा पूजा सम्बंधी
दशा और हम मानव कहाने वाले पशुओंकी मनोवृत्ति प्रस्ताव पर जोरकी विरोधाग्नि भड़क उठी । वहाँ भी
का सजीव चित्र खींच रहा है। मुख्तार साहिबको पाससं देखने और चीन्हनेकी संबोधन 'की करुणाभरी यह पुकार आज इच्छा हृदयमें दबीकी दबी रह गई।
भी मेरे कानोंमें गूंज रही है१६३६ में हस्तिनागपुरके कार्तिकी मेल पर मुख्तार
'आई' भरी उसदम यह कह कर साहिब भी आये हुए थे तब उनके साक्षात्कार का
हो कोई अवतार नया, सौभाग्य प्राप्त हुआ। बड़े प्रेम और मरलताके साथ
महावीर के सदृश जगत में मिले । कई घंटे साथ रहा । रुचि देखकर 'अनेकान्त' में लेख लिखने के लिये आपने मुझे विशेष प्रोत्सा
फैलावें सर्वत्र दया !! हित किया, प्राग्रह किया, प्रकाशित करनेका आश्वा
कविता पाठमें तल्लीन उनकी उस दिनकी यह सन ही नहीं दिया, वरन अपनी इच्छा प्रकट की।
आकृति अक्सर मेरी स्मृतिमें उतर आती है और हम तीन व्यक्ति उस समय वहाँ थे। टहलते हुए मैं सोचने लगता है कि उनकी कविता, उनकी खोज, बातें हो रही थी। मुख्तार साहिबके संकेत पर एक उनका सम्पादन मब एकही उद्देश्यको लेकर चला जगह घासपर हम तीनों जने बैठ गये और मुख्तार है-जैनसमाज जागे, भगवान महावीरके सन्देशको साहिब मेरे आग्रह पर हालकी ही स्वरचित दो कवि- समझे और नवीन विश्वके निर्माण में भागले ।
उनकी संस्था-नीति ......
पण्डितजी एक आदर्श संस्था-संचालक हैं, पर संस्था-संचालनकी वह कुंजी उन्हें नहीं पाती, जो दुमरे चन्दा-चक्रवर्तियोंको हप्तामलक हैं। वे प्रदर्शनका खो न बढ़ाकर, और कम खर्च करने की ही नीति रखते हैं।