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ज्वरकी ज्वालामें जलते हुए भी
श्रीमती प्रेमलता 'कौमुदी', बिजनौर
अपमानके बदले आशीर्वाद श्री मास्टर जी०सी० जैन 'स्वतन्त्र', सिरौंज
इम घटनाको बीते एक सालसे भी अधिक हो
बात १४ साल पुरानी है, जब कि बचपनका चला, पर आज भी यह मेरे मानम पर स्मृतिकी
अल्हरूपन, फूलकी खुश्बूकी तरह मेरे जिस्मके राम तुलिकासं नये चित्र सी खिची हुई है।
रोममें इठला रहा था। अगस्त १९४० को मैं स्याद्वाद
विद्यालय काशीकी दीवारसे सटे हुए नलम झुक बुबारकी हवा-सी चल रही थी, यहां बग्वार, वहाँ कर पानी पी रहा था कि अधेड़ उ, स्वस्थ देहधारी बुम्बार । हरेक घर में कई कई पलंग छि थे। और एक मनुष्य, जिससे मैं नावाकिफ था, आकर कहने बुखार भी ऐसा कि जिसे आता, हिला देता था। लगा-' ! थोड़ा पानी हमें भी पिला दो।" मुख्तार साहब पर भी उसकी नजर पड़ गई र बस पता नहीं मुझ पर क्या भूत सवार हुवा। तुनक १०५! मुझे भी बुखार चढ़ा था, कोई सहायक न था, · कर मैंने कहा-"खुद पीलीजिये आप ! मैं क्या आपका हरेक स्वयं सहायताका ही पात्र था।
नौकर हूँ, जो आपको पानी पिलाऊँ ?"
जवाब क्या था, पानीके प्यासको डला मारना उस दशामें मैंने मुख्तार साहबको देखा
था, पर उस मनुष्यका दिल दरियाके समान उदार थर्मामीटर कहता था-ज्वरकी ज्वाला और पण्डित
था, बिना गुस्सा किये, मुस्करा कर उस मनुष्यने मन जीका मुख कहता था-माधककी सहिष्णुता । शरीर
लुभावने मीठे शब्दों में कहा--"frय बालक, मैं तुमसे और मन एक दम जैसे अलग २ हो गये थे ।
बहुत खुश हुआ कि तुमने निडर होकर जवाब दिया। शरीरको उनके बुग्वार था और मन स्वस्थ-इतना
जो निडर नहीं, वह जीवनमें कुछ नहीं कर सकता, स्वस्थ ाक वह रागा शरारका मा बहुत दूर तक अपन पर एक बातका ध्यान हमेशा रखना कि जब तुम साथ ले चलता था। पण्डितजीने इस दशामें भी किसीको जवाब देने गोनोममें च न अपनी जिम्मेदारियाँ न छोड़ी थीं और सबकी चिन्ता जरूर विचार लेना। तुम ऐसा कर सकोगे, तो देश किये जा रहे थे। बीच २ वे दूसरोंको धीरज बन्धाते और समाजकी अच्छी सेवा करोगे और नाम जाते थे, जैनधर्मका उपदेश इस समय भी जारी था। पावोगे।" अपनी चिन्ता उन्हें न थी, दूसरोंका कष्ट कम हो,
। मैं अपनी गलती पर बहुत शरमाया और माफी यही प्रश्न उनके सामने था।
माँग कर उस मनुष्यके पैरों में गिरने लगा, तो मुझ उनके उस रूपका स्मरण जब मैं करती हैं.मझ उठा कर उस मनुष्यने छातीसे लगा लिया और लगता है कि जैन-जागृतिका वह संदेशवाहक, अपनी
कहा-“बचपन में तो ऐसा होना कुदरतकी देन है।" त्याग-तपस्याकी नींव पर आदर्शोका महल खड़ा करने यह मनुष्य माननीय श्री पं० जुगलकिशोरजी वाला वह धुनी साधक, जीवनकी कलाका महान मुख्तार थे। उस दिनके बादसे मेरे जीवनमें सदा कलाकार मेरे पास ही खड़ा मुझे आशीर्वाद दे सुख शान्ति रही है और मेरा यह विश्वास है कि यह
सस वयोवृद्ध साहित्यसेबीके आशीर्वादका ही फल है।