________________
फिर २]
जो चाधार दिये हैं उनसे न तो यह लाजिम आता है कि 'संस्कृत काव्यनियमों का हिन्दीमें पालन करना निषिद्ध हैं' और न उनके देनेका वैसा कोई अभिप्राय था ।
अपवाद भी एक प्रकारके नियम होते हैं और उन्हें सर्वथा उपेक्षणीय नहीं कहा जा सकता। पिंगलके रचयिता कवि राजमल हिन्दी या अपभ्रंश भाषाकी अपेक्षा संस्कृत भाषा ही अधिक तथा बहुत बड़े कवि थे. और इस लिये उनके वचनोंको यही उपेक्षाका दृष्टिसे नहीं देखा जासकता । 'रागद्वेष' श्रादि जिन पांच पदोंका आपने उल्लेख किया है उन्हें पत्र में 'क्रमसंज्ञित' बतलाया भी नहीं गयाक्रमसंज्ञितका एक ही उदाहरण उपस्थित किया गया था, और वह 'सोभ नहीं मुकको आवे' पदमें प्रयुक्त हुए 'सोम' शब्दका 'हो' अक्षर है 1
--
प्रस्तुत कविता में १६, १४ मात्राओं पर यति हैआठ पर नहीं, और हम लिये यतिभंगका दोष भी नहीं है । अस्तु ।
आपके प्रेमभरे पत्रोंसे मुझे दुःख भला कैसे हो सकता है ? मेरा तो इन पत्रपरमे आपके प्रति बहुत आदर बद गया है। आप विद्वान हैं, विचारवान हैं और सद्भावनाओं से सम्पन है । ऐसे सज्जनोंकी तो मुझे सदा तलाश रहती है । आप मेरे कार्यों में बहुत कुछ सहायता पहुंचा सकते हैं। इस समय मेरा आपसे सिर्फ इतना ही अनुरोध है किआप 'अनेकान्त' पत्रको अपनाएँ, उसकी प्रत्येक किरयामें कोई-न-कोई लेख बराबर देते रहनेका हद संकल्प करें । अनेकान्तको गवेषणापूर्ण तथा प्राध्यात्मिक लेखोंकी बड़ी
पण्डितजीके दो पत्र
७
--
ज़रूरत है। यह विद्वानोंका पत्र है. विज्ञानोंके सहयोग से ही इसे इच्छानुसार ऊँचा उठाया जा सकता है। मैं चाहता हूं इसे जैनसमाजमें ही नहीं किन्तु लोकमें 'कल्याण' जैसी प्रतिष्ठा प्राप्त हो और यह अजैन- -जनताका भी हृदयाल्हादक बने उसे अपनी ओर आकर्षित कर सकें। परंतु यह तभी हो सकता है जब इसे भाप जैसे विद्वानोंका सच्चा सहयोग प्राप्त होवे । विद्वानोंके सहयोग के बिना सम्पादक अक्षा क्या कर सकता है ? मेरे ऊपर संस्थाके दूसरे कामोंका भी कितना भार है और कितने गुरुतर कार्य मेरे सामने हैं. इसे आप स्वयं समझ सकते हैं। ऐसी हालसमें विद्वानोंके यथेष्ट सहयोगके बिना मैं 'अनेकान्स' को इच्छानुसार ऊँचा नहीं उठा सकता हूं। यदि आप जैसे कुछ विद्वान 'अनेकान्त' को अपनी सेवाएँ अर्पण कर देवें और यह गाव निश्श्रय कर ले कि हम अनेकान्तको ऊंचा उठाकर और एक आदर्श पत्र बनाकर छोड़ेंगे तो यह सहजहीमें ऊँचा उठ सकता और एक आदर्श पत्र बन सकता है । आशा है आप मेरे इस निवेदन एवं अनुरोधपर ज़रूर ध्यान देंगे और मुझे निराश नहीं करेंगे। मैं इसके लिये आपके तात्कालिक वचन और उसकी शीघ्र ही कार्यमें परिणतिकी प्रतीक्षा करूँगा ।
२१६
शेष कुशल मंगल है। योग्य सेवा लिखें और कृपादृष्टि बराबर बनाये रखें।
भवदीय
जुगलकिशोर
१२ वर्ष बाद !
एक सज्जनने अपने भाई के लड़के को गोद लिया, पर उसकी सम्भवतः रजिष्ट्री न हो सकी। अपने दत्तक पुत्रके रूपमें उन्होंने उसकी शादी की, पर बाद में वे अपने उस दत्तक पुत्रसे नाराज़ होगये और उन्होंने उसे अपना दत्तक पुत्र मानने से इंकार कर दिया। इसपर मुकदमेबाजी शुरू हुई ।
उन जानने विवाह के समय मुक्तार महोदयको एक पत्र मिला था कि मैं अपने दत्तक पुत्र अमुकका विवाह कर रहा हूं, आप चाँदीका मौड़ भेज दें । १२ वर्ष बाद आपके पास वह मामूखी पत्र सुरक्षित बा और दत्तक के पक्षमें एक सुदृढ़ प्रभाव सिद्ध हुवा।
C