________________
सरसावाका सन्त (ले०-श्री मंगलदेव शर्मा, देहली)
एक साहित्यिककी सहारनपुर-यात्रा तब तक अधूरी ही कमरेकी इस अस्तब्यस्तताने मेरा ध्यान अपनी ओर समझनी चाहिये, जब तक वह सरसावाके वीरसेवामन्दिर खींचा। उसी समय मेरा ध्यान वहाँ रक्खे संस्थाके रजिकी तथा उसके सन्तकी परिक्रमा न करले । यही सोच कर स्टरों पर गया । हरेक रजिस्टर सुन्दर और व्यवस्थित था। मैं एक दिन प्रात:काल सरसावाके तीर्थ-स्थानको चल दिया। इतनी साफ डाकवुक तो बहुत ही कम संस्थानों में होगी।
मनमें नाना प्रकारके संकल्प-विकल्प चल रहे थे। एक भोजनके बाद पण्डितजीने मुझे स्वयं उठ कर सौंफ दी। बड़े भारी साहित्य-सेवीका साहित्य-मंदिर है, बहा भारी इतनी साफ कि एक एक दाना चुना हुआ। मुझे लगा कि ठाट-बाट होगा ! और वे पंडित जुगल किशोरजी-बस यहीं मुख्तार साहबकी अपने प्रति निस्पृहता और अपने कार्यके आकर अटक जाता था। क्या सरलतासे भेंट हो सकेगी? प्रति सचेष्टताके ये दो नमूने है। कमरा जैसे उनका प्रतिक्या वे समय दे सकेंगे।
निधि है और ये रजिस्टर और सौंफ उनके कार्यके । पुस्तपाठ मीलकी इस छोटी सी यात्राको समाप्त कर मैं कानयमें खोज-सम्बन्धी पर्याप्त सामग्री एकत्रित की गई है, सरसावा पहुंचा। वीरसेवामंदिरकी धवनध्वजा दूरसे ही परन्तु उसके लिये अभी पुस्तकोंकी बहुत भाषश्यकता है। दीख रही थी। सड़क के किनारे पर ही उसका मुख्य द्वार फिर भी वीरसेवामंदिरने अभी तक जो कार्य किया है, वह है। भीतर प्रवेश करने पर मेरे सारे विचार बदल गये। महत्वपूर्ण है और विशेष बात यह कि वह सब मुख्तार वीरसेवामन्दिरके इस शान्त तथा सौम्य वातावरणाने मेरे साहबकी ही एकान्त साधना, तपस्या तथा प्रारम-बलिदान हृदय पर विचित्र प्रभाव डाला। मुझे कुछ ऐसा मान का साकार रूप है। संस्थाकी जिस बासने मुझे प्रभावित हुमा जैसे मैं किसी प्राचीन सन्त माश्रममें पहुंच गया हूं किया. वह यहांकी प्रदर्शन-हीनता है। सच पूखिये तो इस
और पण्डित जुगल किशोरजी तो जैसे पहलेसे ही यह संस्थामें भाज-कलका-सा संस्थापन ही नहीं है। एक जानते थे कि हम भा रहे हैं। मानो मिलनेकी ही प्रतीक्षा प्राचार्य है, यह उनका जैसे परिवार है और यहां सब में थे। हमसे वे बड़ी उम्सुकताके साथ मिले। कुछ ही परिवारकी ही तरह सरल, सरस और शाम्त है। पण बाद मुझे यह जान पड़ा जैसे हम वर्षोंके पूर्व परि- दूसरी बार पण्डितजीके दर्शन, उन्हींके सम्मानार्थ चित हैं। उनकी सरलता और विद्वत्ता सहज ही में सबको मनाये गये, सम्मान-समारोहके अवसर पर हुए। यहाँ उन अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। यह उनके स्वभावकी के दूसरे स्वरूप अर्थात् साहित्यिक रूपका विशेष परिचय विशेषता है।वीरसेवामन्दिरका पुस्तकालय देखा और पंडित मिला। जीकी कार्यप्रणालीसे भी परिचित हुना।
उत्सव में सभी विचारों के विद्वान् एकत्रित हुए थे और संस्थाका भवन विशाल है, जिसे पण्डितजीने अपने उनसे बहुतसे ऐसे थे, जिन्होंने परिडतजीके कार्यका धनसे बनवाया है। इसमें हालकमरेकी बगलमें एक छोटासा मार्मिक अध्ययन किया था। अपनी वक्तृतानों में उन्होंने कमरा है. यही संस्थाके अधिष्ठाता श्री मुख्तार साहबकी उनके अथक-परिश्रम, प्रतिभा तथा जैन साहित्यके विशाल कर्मशाला है। बीचमें विधा हुमा एक गहा और उस पर अनुसन्धानकी सराहना की। चारों ओर अस्तव्यस्त पड़ी पुस्तके और कागज़ । कमरेके उत्सव चल रहा था। सबका ध्यान पगिडतजीकी बाकी भागमें भी कहीं कुछ और कहीं कुछ । यही बैठ कर भोर था, और वे मंच पर बड़े संकोचके साथ सिमटे से भाप साहित्य और इतिहासकी शोधका कार्य करते हैं। बैठे थे। जैसे उन्हें किसीने बल-पूर्वक लाकर यहाँ बैठा