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स्वयं अपने प्रति
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श्रद्धाञ्जलि (श्री माईदयाल जैन, बी० ए० एल०टी० देहली)
(उनका एक अन्यन्त भक्त) जिसने अपनी युवावस्थाके समस्त सुर भोगों तथा वृद्धावस्थाके विश्रामको त्यागकर तन, मन, धन से समाज, धर्म तथा जिनवाणीकी दिनरात सेवा की
साहित्यिक फाइलों का जितना विश्वस्त है, जिमने निर्भीकतापूर्वक ममताहीन होकर 'ग्रंथ- और पूर्ण रिकार्ड पण्डित जी रखते हैं उस से परीक्षाएँ' लिखकर साहित्यिक जालसाजोंकी पोल खोल कहीं अधिक वे दूसरी व्यवहारिक वस्तुओंकी कर जनताकी अंधश्रद्धाको दूर कर दिया है, जिसने सुरक्षा प्राप करते हैं, यह नीचे लिखे एक अपनी ऐतिहासिक तथा पुरातत्व सम्बन्धी खोजोंसे उदाहरगामे मालूम होरहा है। साथ ही आप विद्वानों में सम्मान पाया, जिसने अपने जैन शास्त्र- कितने मितव्ययी सरल और साधु स्वभाव के प्रमाणों, तों तथा युक्तियोंस विरोधियोंको निरुत्तर
सज्जन साधक व्यक्ति हैं, इसका एक कितना कर दिया, जिसने समाज तथा धर्म के ठेकदागेंद्वारा ४ सुन्दर हालका उदाहरण हैकिए गए तिरस्कारोंको अपनी सहनशक्तिसे फूलमालामों में परिवर्तित कर दिया है, जिसने लुप्तप्रायः आज कल बाजार में गेटिसोंका मिलना प्राचीन ग्रंथोंका उद्धार करके तथा पता लगा कर
अमम्भव मा होरहा है और ऐसी ही बहुत सी आचार्यों द्वारा दिए हुए ज्ञानका रक्षा की है, जिसने
चीजें नहीं मिल रही हैं । पण्डितजी ऐसी असंयमको परास्त कर दिया है, जिसकी जैनधर्म में
विदेशी वस्तुओं के बदले अपनी मादी भारतीय श्रद्धा सुमेरु पर्वतके समान अचल, ज्ञान गंगाके समान
वस्तुओंका उपयोग करते हैं। कागज के रिमों विशुद्ध तथा मागरके समान अथाह और चरित्र
के ऊपर जो पंकिंग में लिपटा हुआ फीता आता चंद्रमास भी उज्वल है, जिसने भारतीय संस्कृतिके
है, उसीसे आप गेटिसका काम लेते हैं। एक लुप्त पृष्ठकी रचना करने का सफल प्रयत्न
१३ वर्षकी अवस्था में पण्डितजीकी शादी किया है, जिमके निस्वार्थ सर्वस्व दानके सामने
हुई थी और अब आप ६७ वें वर्ष में हैं। तब करोड़पतियों के दान भी लजित हैं, जिसकेद्वारा स्वपर
दहेजमें आपको जो ट्रंक मिला था, वह अभी हित लोककल्याण तथा अनप्तस्कृतिके उद्धारके उद्देश्य
तक पापके पास है और भली प्रकार काम दे से स्थापित किया हुआ वीर सेवामन्दिर साहित्यिक
रहा है। उसी समयकी एक श्राबनूसकी संदूतपस्वियोंका तपोवन बनकर ख्याति पारहा है, जिसके
कची आपके पास है । ५० वर्ष पुरानी एक पाण्डित्य तथा सेवाओंकी प्रशंसा काव्यों में रचने तथा शिलालेखों में अंकित किए जाने योग्य है। सरसावेके
दरी भापके पास है, जो अभी तक काम देरही उस कर्मठ त्यागी पूज्य पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तार
है। १९०५ का खरीदा एक ताला आप के
इस्तेमाल में है। की श्रद्धाञ्जलि के लिये मैं छंदज्ञानहीन, अल्पमति बालक, किस कोष-बाटिकासे शब्द-पुष्प चुनकर लाऊँ?
ऐमी ही उनकी बहुत सी बातों का ध्यान उनकी अमर कीर्तिके गान तो आनेवाले युगके महान करके मेरे मनमें यह कौतूहल हुश्रा करता है कि कवि ही गायेंगे।
मुख्तार साहम अपने प्रति कितने कठोर हैं! उनको मेरा शत-शत प्रणाम !