________________
सभापतिका अभिभाषण
me
( भारत बैंकके डायरेक्टर श्री गजेन्द्र कुम्गरजी द्वारा
माननीय भ्राताओ और देवियो !
की तरह उन शास्त्रोंकी रक्षा की है । इसलिये हमारे
धम और सामाजिक जीवनके वे संरक्षक हैं, पर जब हस्तिनापुरमें विद्वदर पं. जुगलकिशोर
हमने उन विद्वानों के लिये क्या किया? उन्हें मान मुख्तार महोदयक सम्मान-समारोहका सभापतित्व
दिया ? उनकी सच्ची म्वा भी कहाँ की ? करने के लिये मुझ कहा गया, तो मेरा मन संकोच भर गया, क्योंकि एक विद्वानक सम्मान-समारोहका पिछले २०-२५ वो हम चिल्ला रहे हैं कि सभापतित्व करने के लिये कोई विद्वान ही उपयुक्त हमारी जानिकी दशा रुगब-हम नाशकी ओर होता, पर बाद में मैंने यह आदेश स्वीकार कर लिया। जा रहे हैं ! जब दूसरी जातियां उनांत कर रही है, मैंने सोचा कि जीवन में ऐसा अवसर फिर न आयगा उनकी संख्या बढ़ रही है, तब हमागहास होरहा है। कि इतने बड़े विद्वानके चरणों में मैं बैटू, उनके यश मा क्यों है, अनेक लोग अनेक कारण बताते हैं, की उज्ज्वलगाथा सुनू और अपनी शक्तिभर उनका पर मैं तो यही कहता हैं कि इसका असली कारण गुणगान काँ।
हमारे विद्वानोंका सम्मान न होना ही है। हाँ करनक साथ ही मेरे सामने यहाँक भापका
अभी कल मैं ममयमारकी गाथा देख रहा था। प्रश्न आया और मुझम कहा गया कि मैं अपना भाषण छपालू', पर मेरा मन इसके लिये तैयार न
उममें कहा है कि शुद्ध ज्ञान और शुद्ध प्रात्मा दो
चीज नहीं हैं। उम जानना ही सच्चा तत्व है। शुद्ध हुआ, क्योंकि मुझे यहाँ विद्वत्नाके प्रदर्शन की चिन्ता
ज्ञानका और ज्ञानके इन जीवित भण्डागेका श्रादर न थी। मेरे मन मुख्तार साहबकी भक्ति थी और १००० पृष्ठों में विस्तृत विद्वत्तापूर्ण भाषणसं श्रद्धाका
करना ही हम भूल गये । कोई पण्डित हमारे यहां
आते हैं ता हम ममझते हैं कि चन्दा लेने पाये एक शब्द कहीं अधिक श्रेष्ठ है । फिर मुख्तार साहब का कार्य इतना विशाल है कि उसपर जितना भी
हैं । हमने उन्हें बहुत विद्वान मान लिया, तो बस कह जाऊँ, वह उसके शतांश पर भी प्रकाश न पल
सोच लिया कि उन्हें दशलक्षणमें बुलालेंगे या कभी
शाख बचवा लेंगे और कुछ धन इन्हें दे देंगे। बस सकेगा, इसलिये मैंने सोचा कि इम महत्वपूर्ण उत्मव
यहीं तक हमारे यहाँ विद्वानोंका सम्मान है । हमारी पर चलू और अपने हृदयकी भक्तिभावना प्रकट कीं।
जाति धनी जाति है, वह लाग्बों करोड़ोंका व्यापार आजके उत्मवका एक विशेष महत्व है। मैं तो
करती है। धनके इम दर्प में हमने समझ लिया कि इसे अपने समाजकी जातिका त्योहार मानता हैं।
हम धनसे पण्डितोंको ग्बगद मकते हैं। जो पूजाके इस उत्सव होने की यह गवाही है कि अब हमारा।
योग्य थे, उन्हें नौकर ममझा, नौकर रखनेका दावा ध्यान पत्तोंको सींचनेकी जगह मूलकी तरफ गया है ।
किया, यही हमारे हामका कारगा हुमा। हम अपनी हमारे जीवनका आधार हमारा धर्म है और हमारे
इस भूलको समझलें और अपने विद्वानोंका मचा मान धर्मका आधार-संसारके सामने से प्रदर्शित करने
करना सीखें, यही आजके उत्सवका सन्देश है। का साधन-हमारे शाख हैं। हमारे विद्वानोंने भूखे रहकर, तपस्या करके, कष्ट उठाकर भी अपने जीवन हमारे जैनविद्वानों में पं० जुगलकिशोरजीका कार्य