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श्रीसमन्तभद्राय नमः
अभिनन्दनादिके उत्तरमेंश्री पं० जुगलकिशोर मुख्तारका भाषण
सभापतिमहोदय, स्वागताध्यक्षजी, स्वागतमंत्रीजी, बराबर परिश्रम करके, लगनके साथ, शीघ्र फलकी पर्वाह उपस्थितसजनों और सन्देशादिके रूपमें उपस्थित-अनुप- तथा प्रातरताको हृदयमें स्थान न देते हुए, कुछ-न-कुछ स्थित सजनों!
सेवाकार्य निरन्तर करता ही रहा हूँ-भले ही वह कितनी श्राप सबने मिल कर मेरे ऊपर इतना गोझ लाद ही मन्दगतिमे क्यों न हो और उसका मूल्य भी कितना • दिया है कि मेरे लिये उठना और कुछ बोलना भी मुशकिल ही कम क्यों न हो। होगया है!
मेरी इस परियाति और प्रवृत्तिका कुछ प्रारम्भिक सबसे पहले मैं उन सब सजनोंका आभार प्रकट कर इतिहास भी है। भाजसे कोई ३ वर्ष पहले मैं यहां देना चाहता हूँ जिन्होंने मेरे लिये यह मा आयोजन किया (सहारनपुरमें) बम्बई-प्रान्तिक-सभाके उपदेशकके रूपमें है, मेरे लिये दूर दूरसे चल कर इस सर्दीकी मौसममें यहां आया था। उस वक्त ट्रन्स (मैट्रिक) पाम कर लेने के बाद पधारनेकी कृपा की है और मेरे विषयमें कुछ बोलने, लिखने किसी दफ्तर में शीघ्र नौकरीन मिलने के कारण मैंने प्रान्तिक तथा लिख भेजनेका कष्ट उठाया है। इसके बाद जब मैं सभा बम्बईके उपदेशक-विभागमें नौकरी करतीथी. जिसके आपकी ओर देखता हूँ और यह देखता हूं कि आप सब प्रोग्रामके अनुसार मैरे उपदेशकीय दौरेका पहला स्थान मेरे लिये एकत्र होकर मुझे अपना रहे हैं--प्रेमकी-मादर (सरसावासे चलकर) सहारनपुर रक्खा गया था, और हम की रष्टिसे देख रहे हैं. मेरे लिये शुभकामनाओं नया शुभा- लिये उपदेशककी हैसियतसे मेरा पहला उपदेश इसी शीर्वादोंकी वर्षा कर रहे हैं और इस तरह अपने व्यवहार सहारनपुर नगरमें हुआ था। इस उपदेशकीको करते हुए से यह भी प्रकट कर रहे हैं कि अब मैं भापकी नज़रॉमें कुछ ही दिन बाद, जब मैं बम्बाईसे गुजरात-का 'घरका जोगी जोगना' नहीं रहा, तब मेरे लिये प्रसन्नताका दौरे पर था, न मालूम किस तीर्थदर्शन अथवा परिस्थितिके होना स्वाभाविक है। प्रात्मीयजनोंके मध्यमें स्थित होकर वश जिसका मुझे इस वक्त ठीक स्म या नहीं है, मेरे हदय और पावर-मत्कार पाकर किसे प्रसन्नता नहीं होती? में यह भाव उत्पन्न हुभा कि 'मुझे पैसा लेकर उपदेश
परन्तु जब मैं अपनी ओर देखता हूँ तो मुझे बड़ा नहीं देना चाहिये-हो सके तो यह काम सेवाभावसे संकोच होता है और साथ ही प्राश्चर्य भी। क्योंकि मैंने अपनी __ ही करना चाहिये।' तदनुसार मैंने उपदेशकी की नौकरीको इष्टिमें ऐसा कोई महान् कार्य नहीं किया जिसके लिये इतने छोड़ दिया और उपदेशक-विभागके मंत्रीको सपना स्पष्टसम्मानका भाजन बनूं-मैं अपनी त्रुटियों, कमियों और निर्णय खिस भेजा। उस वकसे नि:स्वार्थ सेवाकी मेरी रुचि कमजोरियोंको स्वयं जानता हूं । दूसने मुझसे भी अधिक उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई और मैंने आज तक अपनी किसी विरोधी वातावरणमें विद्यद्गसिसे काम किया है। मैं तो भी रचनाके लिये-चाहे वह लेख, कविता, अनुवाद, अनुएक तुच्छ सेवक हूँ। मुझमें यदि कोई विशेषता है तो सन्धान, ग्रन्थनिर्माण और सम्पादन मादि किसी भी रूप इतनी ही कि-जैनधर्म और समाज-सेवाके प्रति मेरी में क्यों न हो-पारिश्रमिक तथा पुरस्कारादिके तौर पर श्रद्धा अटल और अडोल रही है। समाजका कोई व्यवहार, कोई भी पैसा किसीसे नहीं लिया। मेरी सारी कृतियों कोई तिरस्कार, कोई कटूक्ति (कड़वा बोल), कोई उपेक्षा सके उपयोगके लिये सना खुली रही है--ॉयलटी और कोई सन्देह-रष्टि मुझे उससे डिगा नहीं सकी। मैं प्रादिके बन्धनों में भी मैंने उन्हें नहीं बाँधा है। मैंने जो