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दिगम्बर परम्पराके महान् सेवक
(ले०-श्री पं० राजेन्द्रकुमारजी, मथुरा)
हजरत मोहम्मदके बाद इस्लामकी परम्परा एक रूपमें नहीं रही, किन्तु भागे चलकर इसने तीर्थों और इतिहास मरहमकी और भागे चल कर उनके उत्तराधिकारी के लिए पर भी अपना प्रभाव जमानेकी पूरी चेष्टा की इसी ही उनके अनुयायी शिया और सुर्म के मेवमें बंट गये, यही का परिणाम है जो तीर्थों को लेकर जैनपरम्पराकी दोनों ही बात महारमा साके सम्बन्धमें है। इनके बाद भी इनके शाखाओं में पिछले वर्षों में भारी मुकदमबाजी हुई और अनुयायोंमें एक समता न रह सको थी और यह भी कई जोपाज भी शान्त नहीं इतिहास पर प्रभावसे मेरा मागोमें विभाजित हो गये थे। भागे चलकर इन ही भागोंके तात्पर्य प्रत्येक परम्पराका यह प्रमाणित करनेका प्रभास है प्राधारसे ईसाई सम्प्रदायके केथोक्षिक और प्रोटेस्टेन्टके कि वही भगवान महावीरकी उत्तराधिकारी और इसकी रूपमें वर्गीकरण हुए। बौद्ध धर्म भी इस त्रुटिसे खानी शाला नवीन कल्पना है अर्थात वह प्राचीन है दूसरी नहीं है, और महात्मा बुद्धके बाद उसकी परम्परामें भी नवीन है। हीममान और महायान भादि भेद हुए है। शंकराचार्यका भागे चल कर इस सिटीकरण भाचार स्वरूप अद्वैत भी उनके बाद एक रूपमें नहीं टिक सका है. और भाचार्य कुन्दकुम्व, स्वामी समन्तमय और तरवार्थसूत्रके शंकराचार्यके खास शिष्योंके द्वारा ही उसमें भी विशिष्टाद्वैत रचयिता उमास्वामी मादिको बनाया गया है। ताम्बर और शुद्धाद्वैतका भेव बाल दिया गया है। अधिक क्या कहें परम्पराका कहना रहा है कि उनकी परम्पराके शास्त्र ही पिछली एक सदीके मार्यसमाज में भी स्वामी दयानन्दजीके द्वादशांग हैं या उनमें द्वावशागका अंश सुरक्षित है, उनके बाद गुरुकुल पार्टी और कालेजपार्टीका भेद हुमा है। इससे रचयिता स्वयं श्रतकेवली तक है अत: उनकी परम्परा ही स्पष्ट है प्रायः संसारकी सभी परम्परायें अपने २ प्रभाव- प्रामाणिक एवं प्राचीन परम्परा है। विगम्बर परम्परामे इस शाली व्यक्तियोंके पश्चात एक रूप नही रह सकी है और को स्वीकार नहीं किया है और इसकी मान्यता है कि श्वेताउनमें विभाजन या शास्याभेद हुए हैं।
म्बर परम्पराक शास्त्रोके नाम तो जम द्वादशांग अंगों हमारी जैनपरम्परा भी इससे खाली नहीं है। अन्तिम नाम पर है किन्तु यह बहुत बादकी रमा हैजनमें ऐसी श्रतवक्षा प्राचार्य भद्रबाहुके बाद यह भी एक रूपमें पटनायें, और गुरुपरम्पराओंका उपख है जिनमें इनको नहीं रह सकी है और इसमें भी परस्परमें मेव दुधा वीमत का सौ वर्ष बावकी ही रचना माना जा सकता और मागे चलकर यहीवेताम्बर और दिगम्बरके रूपमें है।ताम्बर परम्पराके पूर्वजोंने सिर्फ अपने सम्प्रदायकी परिणत होगया है। पहले यह भेद सिर्फ साधुस्वरूप तक ही प्राचीनता सिर करमेको ही इन नवीन रचनाओंका संज्ञारहा है किन्तु मागे चलकर इसमें और भी बढोतरी दुई कर प्राचीन अंगोके नाम पर किया हमसे का सौ वर्ष है और साधुरूपकी तरह इसने देवस्वरूप और मर्तिरूपको __ पहिले दिगम्बराचार्य प्राचार्य जम्बम्ब, प्राचार्य उमास्वामी मी प्रमाषित किया है। मेवके इसी बादके परिणामसे और स्वामी समन्वभव बगैरह अमेको शास्त्रोंकी रचना शाचोंमें देवस्वरूपको लेकर परिवर्धन किये गये और रहे। मूर्तियों को भी उसीके अनुसार उसी रूपमें ढाबनेकी विगम्बर परम्पराकी सी बातको निराधार प्रमाचेष्टा की गई है। मूर्तियाँका यह नवीन संस्करण अन्तिम सित करने के लिए बेताम्बर परम्परा विद्वानोका कहना है भुतबनी णार्य मद्रबाहुके करीब एक हजार वर्ष किसाचार्य उमास्वामी तटस्थ थे। ये विगम्बर और पीछे ही हुमा है। जैन परम्पराकी यह विभिचता यहीं तक श्वेताम्बर परम्पराके मेवोंसे सम्बन्धित नहीं थे, दूसरे