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अनेकान्त
[वर्ष ६
चरणों में सारे संसारकी ऋद्धि-सिद्धि लौटती होंगी संसारके सामने कोई भी चमत्कार रक्खें तो सारे तो कौन आश्चर्य की बात है। आज हम अपने ऋद्धि- संसारमें आज फिरसे धर्मका डंका बज जाये। अतः धारी मुनियों के बारेमें शंका करते हैं और पूछते हैं शावश्यकता इस बातकी है कि धर्मकी व्यावहारिक कि क्या ये बातें ठीक हो सकती हैं पर जब हमारे साधनाके लिये कोई अच्छा शिक्षा स्थान हो जहां केवल सामने कोई मेस्मेरिजमका समाचार और उसको जानने खान-पीनमें ही धर्म समाप्त न समझा जाकर आत्मा वाता व्यक्ति आता है तो हम उसके कारनामों पर की शान्तिके लिये साधारण और सरल प्रयोगोंकी विश्वास कर लेते हैं, आखिर यह क्यों ?
साधना पूर्ण सावधानीके साथ आरम्भ कराई जावे। ___कारण केवल एक है कि आज जैनधर्म केवल भविष्यमें मैं इस विपय अर्थात् मेस्मेरिज्मके किताबी धर्म रह गया है, प्रेक्टीकल नहीं । यदि प्रैक्टीकल रूप पर प्रकाश डालनका प्रयत्न करूंगा। व्यावहारिक रूपमें जैनधर्मकी साधनासे आज हम क्या गृहस्थके लिये यज्ञोपवीत आवश्यक है ?
(ले०-५० रवीन्द्रनाथ जैन, न्यायतीर्थ)
चातुर्मासमें जनेऊकी प्रथा अधिक जोर पकड़ बालक अक्षराभ्यासके योग्य होनेपर अक्षर सीखे, यज्ञोजाती है। क्योंकि त्यागीवर्ग ४ माह तक एक स्थान पवीत पहिने और मंत्रविधिसे ब्रह्मचर्यव्रत धारण पर रहते हैं। चार माह तक ऐसा नहीं हो सकता कि करे, लंगोट पहिने, भिक्षावृत्तिसे भोजन करे, शिरउनके पास न जाया जाय; ज्यों ही एकाध बार गये, मुंडन करे, गुरुकुलमें रहे इत्यादि । पर ज्योंही विद्या
और जनेऊका रस्सा जबरन गले में डला! यदि उसके भ्यास पूर्ण कर चुके तो १६वीं किया 'व्रतावतार' है। डालने में जरा हिचकिचाहट की गई तो धर्म-भ्रष्ट इसमें ब्रह्मचर्य छोड़ स्वदारसंतोषी हो वे, लंगोट छोड़ समाज-भ्रष्ट आदिके असह्य दुख सामने आये! अब सुन्दर वस्त्र पहिने, मुंडन छोड़ देश-कालानुसार शिर देखना यह है कि क्या जनेऊ-प्रथा गृहस्थके लिये की शोभा करे और यज्ञोपवीत छोड़ आभूषणादि
आवश्यक है जहाँ तक हमने इस प्रश्न पर विचार पहिने, क्योंकि व्रतावतारका तात्पर्य लिये हुये व्रतको किया है, हमें तो जनेऊकी प्रथा जैन गृहस्थके लिये उतार डालना है, अन्यथा गृहस्थाश्रममें प्रवेश केसे करे। भावश्यक मालूम नहीं होती। क्योंकि:
इस तरह ब्रह्मचारी विद्याभ्यासके समय जिस यशो(१) भगवान आदिनाथ और उनके गृहस्थके पवीतको धारण करता है वह गृहस्थावस्थामें प्रवेश समय तक किसीने कभी जनेऊ नहीं पहना। करते समय उतार दिया जाता है, और इस लिये
(२) भगवान आदिनाथने विदेहमें प्रचलित गृहस्थाश्रमके लिये यज्ञोपवीतकी जरूरत नहीं प्रथाओंको कर्मभूमिमें चलाया, परन्तु प्रामण वर्ण रहती यह साफ ध्वनित होता है। जैनोंमें और जनेऊ प्रथाको नहीं चलाया।
यज्ञोपवीतकी प्रथा हमें तो सनातनी हिन्दुभोंके (३) त्रेपन कियाओं में इस क्रियाको जैसे-तैसे प्रभावयुक्त होनेसे दक्षिणसे माई हुई जान पड़ती है। जोडदिया गया है. पर उनमें भी गृहस्थके लिये क्यों कि वहाँ शैवादिसंप्रदायोंका जोर रहा है और वे आवश्यक नहीं बताया गया। लिपि-संख्यान क्रिया यज्ञोपवीतादि क्रियाथोंके धिमा जैनोंको 'वान्तः नं. १३ है उसके बाद १४ वी किया यज्ञोपवीतकी पाती' तक कहते थे, जो उस समय असम जान पड़ा। और १५ वी क्रिया प्रतचर्या (मंत्रविधि) की हैमर्थात् (४) यज्ञोपवीतकी एक बड़ी विचित्रता भी है कि