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किरण ४]
अनेकान्त-रस-लहरी
पर्दूषण पर्वके उत्सवोंमें अनेक बार ईश्वरवादी मजैन सुनाई न पड़े और न ऐसी निर्हेतुक मान्यता (अन्धविद्वानोंको आमंत्रित करके, उन्हें सभापतिका आसन श्रद्धा) ही होती है कि जो बात अपने किसी शाखमें तक देकर और उनके भाषण कराकर जो सहयोग लिख दी वह तो भागम-कथित सत्य अथवा प्राप्तप्राप्त किया है वह सब क्या उन अजैन विद्वानोंकी वाक्य है और जो दूसरे सम्प्रदायके शाखमें लिखी है आंखोंपर पट्टी बांधकर उन्हें कुएँ में धकेलनका ही वह अनाप्त-वाक्य और मिथ्या है । जिनकी ऐसी उसका प्रयत्न था? यदि नहीं तो फिर दिगम्बरोंका प्रवृत्ति, मान्यता अथवा श्रद्धा होती है वेही अक्सर श्वेताम्बर भाइयोंको बीरशासन-सम्बंधी महोत्सवमें साम्प्रदायिक कट्टरताके शिकार बनते हैं और साप्रशरीक करनेके लिये जो प्रयत्न चल रहा है उसे किस दायिक मनोमालिन्यको बढ़ाकर समाज के गौरवको मुँहसे 'आँखों पर पट्टी बाँध कर कुएँ में धकेलना' गिराने में सहायक होते हैं। जान पड़ता है सम्पादक कहा जाता है? अपनी इस विचित्र सूझ पर सम्पादक सत्यप्रकाशजी ऐसी ही कुछ परिणति, प्रवृत्ति अथवा सत्यप्रकाशजीको स्वयं सोचनेका कुछ कष्ट उठाना श्रद्धाके जीव हैं, इसीसे वे मेरे उक्त अनुसन्धानात्मक चाहिये। साथ ही, यह भी सोचना चाहिये कि श्वे- लेखको पढ़ कर कुछ विचलित हो उठे हैं जो भनेताम्बर समाजके जिन प्रमुख विद्वानों और प्रतिनिधि कान्तकीगत दूसरी किरणमें ऐतिहासिक दृष्टिको लेकर व्यक्तियोंको-बाबू बहादुरसिहजी सिंघी, बा०विजय- लिखा गया है और जिसमें मैंने दोनों सम्प्रदायोंका सिंहजी नाहर,पं० सुम्बलालजी संघवी, पं० बेचरदास ___ जो मतभेद है उसे व्यक्त करते हुए यह बतलाया है जी, मुनियोपुण्यविजयजी, श्रोजिनविजयजी, श्रीकृष्ण- कि यह मतभेद ऐसा नहीं है जो श्वेताम्बरोंको इस चन्द्रजी अधिष्ठाता जैनगुरुकुल-पंचकूला आदिको- महोत्सवमें सम्मिलित होनेके लिये बाधक हो सके । सहयोगके लिये वीरसेवामन्दिरके प्रस्तावमें चुना गया लेखमें श्वेताम्बरीय कथनकी दो एक बातों पर, जो है वे क्या सम्पादकजीकी दृष्टि में इतने असावधान अपनी समझमें नहीं आई,कुछ सन्देह भी कारणविद्वान हैं जिनकी आँखोंपर पट्टी बाँधी जा सकती है? सहित व्यक्त किया गया है, और ऐतिहासिक पर्याउन्हें ऐसा समझना और अपनेको अधिक सावधान लोचममें ऐसा होता ही है, क्यों कि ऐसे लेख मुख्यमान कर उन्हें विरोध प्रदर्शनके लिये चेतावनी देना तया उन लोगोंको लक्ष्य करके लिखे जाते हैं जो सत्य उनकी विद्या, बुद्धि और व्यक्तित्वका अपमान करनेके के खोजी तथा निर्णयबुद्धि होते हैं और हर एक साथ साथ अपनी अनधिकार चेष्टाको व्यक्त करना है। विषयमें आधार-प्रमाणको जानना चाहते हैं। संभवतः
एक ही तार्थकरका शासन मानने वालों में मतभेद इतनी बातको लेकर ही सम्पादकजी, विरोधकी कोई का होना कहीं किसीकी गलती, गलतफहमी अथवा दूसरी बात न देख कर, दिगम्बरोंके इस महोत्सवपरिस्थिति-वश अन्यथा प्रवृत्तिका ही परिणाम हो प्रयत्नका एक मात्र यह भाशय बतलानेके लिये उतारू सकता है, और इस लिये जो लोग यथार्थताको हो गये हैं कि 'श्वेताम्बर अपनी जिनभाषित भागमों मालूम करने और इस मतभेदको दूर करनेकी इच्छा की मान्यताको भूल कर दिगम्बर शास्त्रोंकी मान्यता रखते हैं वे सदा ऐतिहासिक अनुसन्धान, तात्विक को मानने लगें!' परन्तु उनकी वह मान्यता किस पर्यालोचन और युक्तिवादका आश्रय लेते हैं और इस आधार पर जिनभाषितो उसे बतलाने और जो प्रकारके विवेचनोंके लिये अपना हृदय खुला रखते सन्देह उपस्थित किया गया है उसका सैद्धान्तिक तथा है-उनका विचार और व्यवहार सदा उदार होता ऐतिहासिक दृष्टिसे निरसन करनेका उन्होंने अपने है। तभी वे सत्यका निर्णय और अपने मतभेदको दूर लेखमें कोई प्रयल नहीं किया !! प्रत्युत इसके, उन्होंने कर ऊँचा उठ पाते हैं। उनकी ऐसी प्रवृत्ति कदापि श्वेताम्बरोंको इस महोत्सबमें शरीक होनेसे रोकनेके नहीं होती कि दूसरे मतकी आवाज भी उनके कानोंमें लिये एक दम यह फतवा दे डाला अथवा उनके नाम