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किरण ५]
पथ-चिन्ह
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यद्यकत्र दिने न मुक्ति रथवा निद्रा न रात्रौ भवेत् मुखपत्र 'जैनगजट' (देवबन्द) के सम्पादक बनाए गये। विद्रात्यम्बुजपप्रवद् दानतोभ्याशस्थिताद्यधुबम् । यह आपकं मम्पादनका प्रारम्भ था। सम्पादन ग्रहण अस्तव्याधिजलादिनोऽपि सहमा यश्च क्षयं गच्छति, करते समय पत्र में आपने किसी प्रकारकी अपनी नीतिघोषणा भ्रात: कात्र शरीर के स्थिरमति शेऽस्य की विस्मयः॥ नहीं की, मिर्फ मंगलाचरण के रूपमें एक लेख लिखा।
वास्तवमें तब श्राप लेखक थे और आपकी सम्पावनकला एक दिवम भोजन न मिलै या नीन्द न निशि को श्रावे, अंकुरित ही होरही थी । ३१ दिसम्बर १६.६ तक प्राप अमिसमीपी अम्बुज दल सम यह शरीर मुरझाये, उसके सम्मदक रहे। शस्त्र-व्याधि-जल श्रादिकसे भी, क्षणभरमें क्षय हो है, इस बीनके 'जैन गजट' का निरीक्षण करनेसे हम
चेतन!क्या थिर बुद्धि देहमें विनशत अचरज को है? पापकी तात्कालिक सम्पादन-प्रवृत्तियोंको ३ भागोमें बोट उपदेशकके रूपमें
सकते हैं। पहली भाषा-संशोधनात्मक, दूमरी सुधाग्भावनाइन्ट्रेस पास करते ही आपके सामने जीविकाका प्रश्न त्मक और तीसरी प्रमाणसंग्रहात्मक । आपने उस काल में माया ।इधर उधर नौकरीकी तलाशकी, पर मन माफिक अपनी और दूसरे लेखकोंकी भाषाके संशोधनमें बहुत भारी कोई काम न मिला। अन्तमें आपने बम्बई प्रान्तिक सभा परिश्रम किया । आप यह ध्यान बराबर रखते थे कि की वननिक उपदेशकी सन् (EEL के नवम्बरमें प्रारम्भ हरेक लेख, टिप्पणी या सूचना इस प्रकार दी जाये कि की जो १ मास १४ दिन ही चली। उपदेशकके दो रूप समाजमें सुधारकी भावना जाग्रत हो । और जो कुछ भी हैं। एक में वह अपनेको उपस्थित जन समूहके सामने नेता
___ कहा जाये घर प्रमागा-परिपुष्ट हो। अपने अग्रलेखों में प्रापने के रूपमें, सम्देश देते हुए पाता है और दूसरे में संस्थाके सदेव नीनी प्रवृत्तियोंका समन्वय रखनेकी चेष्टा की है सभापति और महामन्त्रीके सामने एक नौकरके रूपमें
और यही कारण है कि आपके अग्रलेख प्रायः बहुत लम्बे निर्देश लेते हुए। और तब उसका मन उससे पूछना है कि रहे हैं। २०४२६४ सालके पत्रमें ७-८कालमके अग्रये लोग कुछ न करते हुए भी सम्माननीय है और मैं संस्था लेख श्राप प्रायः लिम्बतेथे।१अक्तूबर १६.७का अग्रलेख के लिये रात दिन काम करके भी सम्मान-हीन, केवल तो १२॥ कालममें समास हुना है। यह 'भावागमन' के इसी लिये तोकि मैं अपने निर्वाहके लिये कुछ रुपये मीलेता सम्बन्धमें है। हैं और ये नहीं लेते। सम्भवतः मी प्रकारका कोई अनभव न सितम्बर १९.७के अग्रलेख में आपने पत्रोमें प्रकापण्डितजीको हुनाया क्या, उन्होंने यह निम्मय किया कि रुपया शित होनेवाले अश्लील विज्ञापनोंका विरोध किया है और लेकर उपदेशकीका काम न करेंगे और नौकरी छोडदी। फिर १जनवरी १९०5 में भी इसी विषयपर लिखा है। मुख्तार हुए
सम्भवतः विशापनोंके संशोधनपर देशभरमें सबसे पहले अपने निर्णयको उन्होंने इतनी कठोरतासे निवासा कि आवाज उठानेवाले सम्पादक प्रापही है। पारिश्रमिक प्रादिके रूपमें रुपया लेकर कभी समाजका काम अनुसन्धान प्रवृत्तियाँनहीं किया और काम करके भी अपने लिये समाजसे कभी आपकी तीसरी प्रवृत्ति प्रमाण-संग्रहने ही वास्तव में रुपया नहीं लिया । स्वतन्त्र रोजगारकी रष्टिसे सन् १६०२ में आपके अनुसंधाता रूपकी साधि की है। सितम्बर १९०७ आपने मुख्तारकारीकी परीक्षा पासकी और सहारनपुर में के अंकमें शाकटायनके व्याकरणपर भापका एक लेख हैप्रैक्टिस करते रहे। १६.५ में आप देवबन्द चले गये और 'हर्षसमाचार' । इसमें इस व्याकरणके छपनेपर हर्ष प्रकट वहीं प्रैक्टिस करते रहे। अपना यह स्वतन्त्र कानूनी व्यवसाय किया गया है और जैनियोंसे उसके अध्ययनको शिफारिश करते हुए भी आप बराबर समाजसेवाकेकामों में भाग लेते रहे। की गई है। यह सबसे पहला लेख है, जिसकी लेखनशैली सम्शदकके रूपमें
में खोजपूर्णता तो नहीं, पर प्राचीन साहित्य के अनुसंधानके १ जुलाई १९०७ में श्राप महासभाके साप्ताहिक प्रति मुख्तार साहबकी बढ़ती अभिरुचिका निर्देश।