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अनेकान्त
[वर्षे ६
की 'विनय' के भावसे पापने बौडिंग हाऊमके अपने कमरे 'लाला जुगलकिशोर विद्यार्थी सरसावा जिला सहारनपुर पर यह लिख रक्खा था कि None is allowed to का लेख अवश्य पदिये। enter with shoes किमीको जूता पहने अन्दर
सम्पादकके पास लेख मेजते समय जो पत्र आपने पानेकी इजाजत नहीं। एक मुसल्मान विद्यार्थी एक दिन लिखा था वह भी 'जैन गजट' के इसी अंकमें छपा है, उस जबर्दस्ती भीतर जूता ले वाया। इस पर उसे धक्का देकर का दर्शनीय 'ड्राफ्ट' इस प्रकार हैमापने बाहर कर दिया। नये आये हुए हेडमास्टरने इस कस
प्रार्थना में न्याय नहीं किया और प्रतिवादमें आपने स्कूल छोड
“श्रीमान बाबू सूरजभान साहिब, जैसे कि लघु एक छोड़ दिया । हम हेडमास्टर श्रार इस बानसे भी श्रस- पुरुष व बड़े काम करनेकी प्रार्थना करें तो यह कैसे हो न्तुष्ट थे कि उसने एक बार दशलक्षण पर्व में शास्त्र पढ़ने के सकता है परन्तु जैसे कि पानके संगतसे तुच्छ पत्ता बादशाह लिये, सरसावा जानेको महीन दी थी। पर्व के दिनों में आप तक पहुंच जाता है इसी कार मैं हकीम उमसेनकी श्राशाही पहा, अपनी छोटी उम्रसे ही, शास्त्र पढ़ा करते थे, इस
नुसार और आप लोगों की सहायनासे श्रापसे प्रार्थना करता लिये ही न मिलने पर भी प्राप गये और जुर्मानेका दण्ड
हूँ कि आप मेरे इस उपरोक्त विषयको यदि भाप अच्छा स्वीकार किया।
समई, तो सुधार कर अपने अमूल्य पत्रमें स्थान देखें। आनुषंगिक संयोग देखिये कि इस रूपमें श्राग्ने अपने
यद्यपि यह लेख योग्यता नहीं रखना है परन्तु यदि आप जीवनका जो सबसे पहला संघर्ष रचा, उसका सीधा संबन्ध स्थान देंगे, तो मेरा मन भी प्रफुल्लित हो जावेगा और मैं जैनसाहित्य के साथ था । उस दिन कौन कह सकता था कि
प्रारको कोटिशः धन्यवाद दूंगा। इस 'किशोर' का सारा जीवन ही जैनसाहित्यके लिये संघर्ष
पार कृपापूर्वक प्रार्थनाको पहले लिखें, पश्चात कुल करनेको निर्मित हुश्रा है!
लेख लिखें ॥ यदि एक पत्रमें न श्रावेगा तो दोमें छाप देखें।
प्रारका श्राशाकारी छापेके अक्षरों में
. जुगलकिशोर वि० दफे ३" सरसावाकी जैनपाठशालामें पढ़ते समय ही, आपकी 'वि. दफे ३' का अर्थ है-दर्जा ३ का विद्यार्थी, पर लेखन प्रवृत्तियां प्रस्फुटित हो चली थीं। आपके उस समयके ३ छपाईकी भूल है, उस समय आप ५वीं क्लासमें पढ़ते अभ्यास-लेखादि तो अप्राप्य है, पर ८ मई १८६६ के जैन थे। सन् १९०० में आपके घरमें बचा होने वाला था, उस गजट' (देवबन्द ) में आपका जो पहला लेख छपा था वह अवसर पर स्त्रियाँ जो गीत गाती है, वे भागको पसन्द नहीं प्राप्य है। यह जैनकालिजके समर्थन में है और इसका आये और प्राग्ने स्वयं एक गीत लिख कर दिया, जिसकी प्रारम्भ इस प्रकार होता है
पहली पंक्ति इस प्रकार थी"भाई साहबो, सब तरह विचार करने और दृष्टि
"गावो री बधाई सखि मंगलकारी" कैलानेसे मेरी सम्मतिमें तो यही प्राता है कि सब अन्धकार इन उबरणोंसे स्पष्ट है कि प्रापकी भावनानोका जागकेवल अविद्याका और विद्यारूपी सूरजके प्रकाशोते. रण तीब्रगतिसे हो रहा था और पार पढ़ते समय ही उसे सब भाग जायेगा, फिर न मालूम भाइयोंने और कौनसा हिन्दीकी ओर ढल गये थे। उपाय इसके दूर करनेका सोच रक्खा है जिससे कि इतना जैनगजट' में आप अक्सर लेख लिखते रहे और प्राप समय बीत गया है और यह दूर नहीं हुआ और इसके की काव्य-प्रवृत्ति भी प्रस्फुटित होती रही। संभवतः १६.. कारण जो जो नुकसान हुए है, वह सबको विदित है।" में ही शोलापुरसे 'अनित्य पंचाशत् नामका प्रन्थ प्रकाशित
इस लेख पर जैनगजटके सम्पादक श्री बाबू सूरजभान हुमा।आपको वह बहुत पसन्द पाया और श्रापने तभी जीने जो शीर्षक लगाया था वह उस कालकी हिन्दी पत्रकार उसका पद्यानुवाद कर डाला। कलाका एक मनोरंजक उदाहरण है
उसका एक नमूना इस प्रकार है