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अनेकान्त
वर्षे ६]
इस आशयका आर्डर जारी कर दिया है कि 'जो इस ग्रन्थमें सिद्धार्थ व्यन्तरका उल्लेख नहीं किया।... श्वेताम्बर भाई इस उत्सबमें भाग लेंगे उनकी बागत बास्तवमें भगवानके लोकोत्तर जीवन के साथ सिद्धार्थ यह ममझ लिया जायगा कि उन्होंने अपनी प्राम- बाला प्रसंग अन्तर्गदुकी तरह निरर्थकसा प्रतीत है।" कथित मान्यताको अलग रख छोड़ा है और दिगर तब क्या आवश्यकता है कि एक भूतकी तरह सिद्धार्थ शाखोंकी मान्यताको अपना लिया है-स्वीकार कर को भगवानके पीछे लगा कर उनके धीर-बीर जीवन लिया है' !!! सम्पादकजीकी यह प्रवृत्ति और परिणति का महत्व घटाया जाय ? कदाचित् यह कहा जा कहाँ तक न्याय-संगत है, इस पर श्वेताम्बर समाजके सकता है कि छमस्थावस्थामें भगवान् मौन रहते थे विचारवानोंको गंभीरताके साथ विचार करना चाहिये। इस लिये गोशालकके साथ वार्तालाप करने वाला
यदि सम्पादकजी ऐसे ही साम्प्रदायिक हैं कि अपन कोई दूसरा ही होना चाहिये । इसका भी हमारे पास किसी भी भागमके विरोधमें कोई बात, चाहे वह उत्तर है। भगवान् बद्मावस्थामें मौन रहते थे, यह कैसी भी युक्तियुक्त क्यों न हो. सुनना नहीं चाहते सत्य है, तथापि ऐकान्तिक नहीं।" इसी कारणसे और न उस दिशामें किसी ऐतिहासिक पर्यालोचन हमने इन (भ० महावीर) के चरित्रमेंसे सिद्धार्थका एवं तात्विक विवेचनकोही पसन्द करते अथवा सहन प्रसंग हटा कर सिद्धार्थसे कहलाई गई बातें भगवान् करनेके लिये तय्यार होते हैं, तो मैं उनसे पूछना केही मुखसे कहलाई हैं।" चाहता हूँ कि जहाँ आगम भागमें परस्पर विरोध है तब, क्या सम्पादकजीने मुनि कल्याणविजयके वहाँ वे क्या करेंगे?-किसको जिनभाषित प्रमाण, इस प्रन्थ पर कोई आपत्ति की है और इसका बाईकिसको अजिनभाषित अप्रमाण करार देंगे और काट करनेके लिये श्वेताम्बर समाजको कोई चेतावनी किस आधार पर ? साथ ही, यह भी पूछना चाहता हूँ दी है? यदि ऐसा कुछ भी नहीं किया तो फिर मेरे किहालमें मुनि कल्याणविजयजीने भ० महावीरका उक्त गवेषणात्मक लेखको पढ़ कर आप इतने विचजो जीवन-चरित्र लिखा है उसमें उन्होंने पागम सूत्रों लित क्यों हो उठे कि, बीरशासनके महोत्सव जैसे से उन चरितांशोंको ही लेनेकी सूचना की है जो सत्कार्यका भी विरोध करनेके लिये उद्यत हो गये ? "ठीक समझे गये"'-शेषको जो ठीक नहीं समझे इसे तब साम्प्रदायिक कट्टरताके वश ईर्षा, द्वेष और गये उन्हें छोड़ दिया है--,जिसका यह स्पष्ट आशय अदेखसका भावका परिणाम नहीं तो और क्या कहा हैकिश्वेताम्बरीय भागमोंमें महावीरके चरित-संबंधी जासकता है? इसे सहृदय पाठक स्वयं सोच सकते हैं कुछ ऐसी भी बातें है जो स्वयं श्वेताम्बर साधुओंकी सम्पादकजीसे अनुरोध है कि वे मेरे उक्त लेख और दृष्टिमें भी ठीक नहीं हैं। उन्होंने उक्त जीवन-चरित इस लेखको भी अविकलरूपसे अपने पत्र में प्रकाशित में श्वेताम्बरीय शाखोंकी कितनी ही बातों पर स्पष्टतया करनेकी कृपा करें, जिससे उनके पाठक स्वयं औचिअश्रद्धा भी व्यक्त की है, जिसका एक उदाहरण त्य और अनाचिन्यका निर्णय करने में समर्थ हो सके। 'सिद्धार्थ व्यन्तर' वाला प्रसंग है। मुनिजीने इस पूरे अन्तमें इतना और भी प्रकट कर देना चाहता प्रसंगको महावीरके जीवन-चरितसे निकालते हुए हूँ कि वीरसेवामन्दिर शुरूसे ही दिगम्बरोंके साथ प्रस्तावना (पू. २४, २५) में जो छ लिखा है उसके श्वेताम्बरों तथा स्थानकवासी सज्जनोंको भी कुछ वाक्य इस प्रकार है
पीर-शासन-जयन्तीके उत्सवोंमें शामिल होनेके लिये "प्रावश्यक टीका और संस्कृत -प्राकृत सभी निमंत्रित करता आ रहा है उसका यह प्रयत्न पन्थों में सिद्धार्थ व्यन्तर और गोशालक मंखलिपुत्रका प्राजका नया नहीं है। फलतःभनेक सब्जन उत्सव नामोल्लेख बार बार भाता है परन्तु हमने अपने में शामिल भी हुए-एक वर्षतो उत्सव एक प्रमुख १ श्रमण भगवान महावीर, प्रस्तावना पृ.२३ - स्थानकवासी साधुजीके सभापतित्वमें ही मनाया गया
मागमोंमें महाका यह स्पष्ट आशय इसे तब साम्प्रदायिक
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