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करण ४]
पण्डिता चन्दाई
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था, जिन्होंने अगले वर्ष भी अपने कुछ विद्यार्थियोंके सरल वृत्तिसं' प्रेरित नहीं बतलात !! श्वेताम्बरोंकी साथ उत्सव में पधारने की कृपा की थी। इसके सिवाय आँखों र पट्टी बाँधकर उन्हें कुएँ में गिरानेका प्रयत्न अनेकान्तादि पत्रों में वीर-शासन-जयन्ती-सम्बन्धी सुझाते हैं !!! यह सा देखकर बड़ा ही पाश्चर्य तत्र कितना ही साहित्य बराबर प्रकाशित होता पा रहा खेद होता है!!
पर उसके द्वारा दूसरोंको सोचने-समझनेका काफी आशा है उदारचेता श्वेताम्बरीय नेता और अवसर मिकता रहा है। परन्तु सात वर्ष के भीतर काही विद्वान , वस्तुस्थिति पर सम्यक् विचार करके से भी विरोधकी कोई आवाज़ नहीं सुन पड़ी। आज मा दिकनीक इस विरुद्ध प्रचारकी नियंत्रित करेंगे सम्पादक सत्यप्रकाशजीका जब विरोधके लिये कोई और महोत्सवके कार्यों में अनेक प्रकारसे अपने उचित बात न मिली तो आप बीसियामन्दिर र सहयोगकी घोषणा करके दिगम्बर समाजको अपना दिगम्बर जैनोंकी नीयत पर आक्षेप करने चले हैं! आभागी बनाएंगे। उनके इस उत्सव - प्रयत्नको “विशुद्धभावना और ता० १८-११-४३
वीर सेवामन्दिर सम्साग
[ हमारी विभूतियाँ । पण्डिता चन्दाबाई ॥ श्री कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' !
पति मर गया, पल्लीकी उम्र १६ वर्ष है। मां बाप बिलख प ति मर गया है, पत्नीकी उन १६ वर्ष--उसके रहे हैं. भाई रोरहे हैं, बहनें बेहाल है, शहर भरमें हाहाकार जीवन में अब मारहाद नहीं, भाशा नहीं, दुनिया लिये है, पर जिसका सब कुछ सुट गया, वह स्नान करके श्रृंगार वह पक अशकुम है-सामक निकट डायम, माके लिये कर रही है, प्रांखोंमें अंजन, माँगमें मिन्दूर और गुलाबी बदनसीब, वह मानव है, भगवानके निवासका पवित्र चुनरिया-चेहरे पर रूप बरस पड़ा है, अंग २ में स्फुरणा है मन्दिर, पर मानवका कोई अधिकार उसे प्रास नहीं। समाज और जिलामें मिश्री जिनसे कभी सीधे मुंह नहीं बोली, और धर्मशास दोनोंने उसके पथ ऊंचे 'बो' खरे किये आज उनसे भी प्यार ।
हैं, जिनपर लिखा है, संयम, ब्रह्मवर्य, त्याग, सतीस्व, और शहर भरके लोग एकत्रित युवककी भर्थी उठी, अर्थी बन्दनीय, पर व्यवहार में प्रायः जेठ, देवर, श्वसुर और केमागे, नारियल उबालती पर्देके उस बीहव, अंधकारमें जाने किस की पशुताका शिकार । रेलवें डिपार्टमेण्टके भी खुजे मुंह गीत गाती, बोलके मद भरे घोष पर 'सरी' विभागके कर्मचारियों तरह जब पावश्यथिरकती, उसीके ताल पर अपनी नाचरियां खनखनानी कता हो, पिताके घर और जब जरूरत हो श्वसुरकबार जा वह वर्षकी सुकुमारी नाग श्ममानकी मोर जाती, कर्तव्य पालन के लिये वाध्य ऐसा कब पाखन जिसमें भारतके चिर प्रतीतमें हमें दिखाई देती है।
रस नहीं. अधिकार नहीं, ममता नहीं-कैदीकी मुसकसकी उसका पति मर गया, पर वह विधवा नहीं, यह हमारी तरह अनिवार्य, परमहत्वहीन और मानहीन ! यह हमारे राष्ट्र संस्कृतिका महा वरदान । पतिके साथ रही है, पतिके के मध्ययुगकी विधवा है, समाजका अंग होकर मी, सामासाथ रहेगी-चिताके ज्वालामय वाहन पर भारत हो, जिक जीवनके स्पन्दनसे शून्य। सांस चलता है,केवबासी किसी अपयशोककी ओर जैसे देहधरे ही बह उबीजा लिये जीवित, अन्यथा जीवनके सब उपकरणोंसे दूर, जिसने रही है, जहाँ पहै,कुरूप नहीं, मंगल है अमंगल नहीं, सब कुछ देकर भी कुछ नहीं पाया, बलिदानके बकरेकी मिवानी, बियोग महीं। यह भारतके स्वयं युगकी महा- तरह बम्बनीय | जिसमे टोकरें खाकर भी सेगडीचौर महिमामवी सती, उसे शतशत प्रणाम !
रोम रोममें अपमानकी मुहयोंसे सिंध कर भी विमोहनहीं. +
किया। हमारे सांस्कृतिक पतनकी प्रतिविम्ब और सामाजिक