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अनेकान्त
[वर्ष ६
राज-श्रिया राजसु राजसिंहो रराज यो राज-सुभोग-तन्त्रः।
माईन्स्य-लक्ष्म्या पुनरास्मतन्नो देवाऽसुरोदारसभै रराज ॥३॥
'जो राजेन्द्र, राजाओंके योग्य सुभोगोंके अधीन हुए अथवा उन्हें स्वाधीन (अधिमाधक रूपमें प्राप्त किये हुए, राजलक्ष्मीसे राजाओंमें शोभाको प्राप्त हुए वे ही फिर (परम बीगग अवस्थाम) श्रात्माधीन हुए-आत्माका कर्मचन्धनसे छुड़ा कर स्वाधीन किये हुए-श्राहंन्यलक्ष्मीसे-अनन्तशानादिरूप श्रन्ताङ्ग और श्रष्ट महापानिहार्यादिरूर बहिरंग विभूषिसे-देवों तथा असुरों ( श्रदेवों )-मनुष्यादिकोंकी महती ( ममवमरगातिना ) समामें शोभाको प्राप्त हुए हैं।'
यस्मिन्नभूद्राजनि राजचक्रं मुनी दयादीधिति-धर्मचक्रम् ।
पूज्ये मुहुः प्राञ्जलि देवचक्रं ध्यानोन्मुखे ध्वंमि कृतान्तचक्रम् ॥४॥
'जिनके राजा होने पर राजाओंका समूह हाथ जोड़े खड़ा रहा, मुनि होनेपर दयाकी किरणों वाला धर्मचक्र प्रालि हुअा-अात्माधान बना. पूज्य होने पर-धर्मतीर्थका दर्तन करने पर-देवोंका समूह पुन: पुन: हाथ जोड़े खड़ा रहा, और ध्यानके सन्मुख होने पर-प्युपरनक्रियानितिलक्षण योग के चम समय में-कृतान्तचक्र-कमीका अवाशष्ट ममूह-नाशको प्राप्त हुआ।
स्वदोष-शान्त्या विहितास्मशान्तिः शान्तर्विधाता शरणं गतानाम् । भूयाद्भव-क्लेश-भयोपशान्स्ये शान्तिजिनो मे भगवान्शरएयः॥ ५॥
-स्वयम्भूम्तोत्र 'जिन्होंने अपने दोषोंकी--अज्ञान तथा गग-द्वेष-काम क्रोधादि विकागेका-शान्ति करके-गा निवृत्ति करके-श्रात्मामें शान्ति स्थापित की है--पूर्ण मुग्वम्वरूपा स्वाभाविक स्थिति प्रान की है, और (म लिये) जो शरणागतोंके लिये शान्तिके विधाता हैं वे भगवान शान्तिजिन मेरे शरण्य हैं-शाणभूत हैं । अतः मेरे संसार-परिभ्रमणकी. क्लेशोंकी और भयोंकी उपशान्तिके लिये निमित्तभून हो।
भावार्थ-अात्माको शान्ति-सुम्बकी प्राप्ति अपने दोषोंको-राग-द्वेष-काम-क्रोधादि विकारोंक-शान्त करनेसे होनी है, और जिम महान् श्रात्माने अपने दोषोंको शान्त करके आत्मामें शान्ति-सुखकी प्रतिष्ठा की है वही शरणागतीके लिये शान्ति-सुखका विधाना होता है उनमें शान्ति-सुखका संचार करने अथवा उन्हें शान्ति-सुख रूप परिणत करने में सहायक होता है, और ऐसा करने में उसके लिये किसी इच्छा तथा प्रयत्नकी भी जरूरत नहीं पड़नी-वह स्वयं ही उस प्रकार हो जाता है जिस प्रकार कि अनिके पाम जानेसे गर्मीका और हिमालय या शीतप्रधान प्रदेशके पास पहुँचनेसे सर्दीका संचार अथवा तद्रूप परिणमन हुअा करता है और उसमें उस अग्नि या हिममय पदार्थकी इच्छादिकका कोई कारण नहीं पड़ता । श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्रने अपने दोषों-रागादिविभावपरिणामोंको पूर्णतया शान्त करके अपने श्रात्मामें पूर्ण शान्ति स्थापित की है और इस लिये वे शरणागत भव्य जीवों में शान्ति-सुखके विधाता हैं-बिना किसी इच्छा या इस्तादि प्रयत्नके ही उनमें शान्ति-सुखका संचार करने अथवा उन्हें शान्ति-सुखरूप परिणत करने में प्रबल सहायक हैं। इसीसे स्वामी समन्तभद्र शान्तिजिनेन्द्रकी स्तुति करते हुए कहते है-'मैं ऐसे शान्तिमय जिनभगवान्की 'शरणमें प्राप्त होताहूँ-उनकी शान्ति-पद्धतिको अपनाता हुआ उनका श्राराधन करता हूँ-,फलतः मेरे संसार-परिभ्रमण की समामि और साँसारिक क्लेशों-दुःखों तथा भयोंकी इतिश्री' होवे।'