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=== = जैन-जागरणके दादा भाई -2-
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2 । हमारी विभूतियों । बाब सूरजभान
श्री कन्हैयालाल मिश्र
'प्रभाकर' or=0 [हमारे समाज में इस समय भी ऐसे माहत्य-सेवी. दार्शनिक, लेखक, कवि, दानवीर, धर्मबीर, कर्मवीर, देशभक्त
और लोकसेवक विद्यमान हैं, जिनपर हमें क्या संमा-भरको अभिमान हो सकता है । 'अनकान्त' के इस स्तम्भक अन्तर्गत ऐसी ही कुछ विभूतियोका संक्षिप्त परिचय देनेका श्रायोजन किया गया है।
-सम्पादक] हमारे चिर अतीतमें, जीवनकी एक विषम उल- बवण्डर खड़ा करेंगे,सत्यके विरुद्ध ऐसा मोबाँधेगे भनमें फंसे, संस्कृतके कविने दुखी होकर कहा था- कि यहीं प्रलयका नजारा दिखाई देगा। 'जानामि धर्म, न च मे प्रवृत्तिः !
चलो, इस मोर्चेस भी लड़ेंगे! असत्यका मोची, जानाम्यधर्भ, न च मे निवृत्तिः !"
सत्यके सिपाहीको लड़ना ही चाहिये, पर चारों ओरके धर्मको मैं जानता तो हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति
ये समझदार साथी जो घर बैठे--"हा हाँ, बात नहीं है ! अधमेको भी मैं जानता हैं, पर हाय,
तुम्हारी ही ठीक है, पर तुम्हीं क्यों अगुवा बनते हो। उससे मैं बच नहीं पाता !
इकला चना भाड़को नहीं फोड़ सकता! इन सब बुराजीवनकी यह स्थिति बड़ी विकट है। अचानक
इयोंका तो समय ही ठीक करेगा। याद नहीं, रामून गिरना सरल है, जानकर गिरना कठिन, जानकर और
सिर उठाया, बिरादरीके पंचोंने उसे कुचल दिया। फिर रुकनेकी इच्छा रहते ! भूलसे गिरनेमें शरीरकी क्षति है, जानकर गिरनेमें आत्माका हनन है। हमारा समाज
फिर तुम्ही तो सारे समाज के ठेकेदार नहीं हो । बड़ों श्राज इसी श्रात्म-हननकी स्थितिमें जीरहा है।कौन नहीं
से जा बात चली रही है, उसमें जरूर कुछ सार
है। तुम्हीं कुछ अक्लके पुतले नहीं हो--समाजम जानता कि खियोंको पर्देमें रखना, अपनी वंशवेलि' पर हल्का तेजाब छिड़कना है! विवाहकी आजकी प्रथा
और भी विद्वान हैं। चलो, अपना काम देखो, किस किसे सुम्बकर है ? और संक्षेपमें हमारा आजका
झगड़े में पड़े जी!" जीवन किसे पसन्द है? हम आज जिस चकमें उलझे
__विचारका दीपक भीतर जल रहा है, धुंधला-सा, घूम रहे हैं, उसे तोड़ना चाहते हैं, पर तोड़ नहीं पाते!
नन्हा-सा, टिमटिमाता। तेल उसमें कोई नहीं डालता, परम्पराके पक्ष में एक बहुत बड़ी दलील है, उसकी
उसे बुझानको हरेककी फूक बेचैन है।दीपकमें गरमी गति । परम्परा बुरी है या भली चलती रही है, उस
है, वह जीवनके लिये संघर्ष करता है, उसकी लौ के लिये किसी उद्योगकी ज़रूरत नहीं है। कौन उससे
टिमाटमाती है, ठहर जाती है, पर अन्तमें निराशा लड़ कर उद्योग करे, नया झगड़ा मोल ले । फिर हम
का झोंका आता है, वह बुझ जाता है । पता नहीं, समाज-जीवी हैं । जब सारा समाज एक परम्परामें
हमारे समाजमें रोज तरूण-हृदयों में विचारोंके दीपक चल रहा है, तो वह इकला कौन है, जो सबसे पहिले
कितने जलते हैं और यों ही बुझ जाते हैं। काश, वे विद्रोहका झण्डा खड़ा करे, नकू बने ?
सब जलते रह पाते, तो आज हमारा समाज दीपअच्छा, कोई हिम्मत करे, नक बननेको भी मालिकाकी तरह जगमग जगमग दिखाई देता। तैयार हो चले, तो उसके भीतर एक हड़कम्प उठ सुना है. हाँ, देखा भी है, दीपक हवाके झोंकेसे श्राता है-लोग क्या कहेंगे? और ये लोग ? जिन्हें बुझ जाता है, हवा नहीं चाहती कि प्रदीप जले, दोनों सहीको गलत कहनेकी मास्टरी हासिल है और जो में शत्रुता है; पर वनमें ज्वाला जलती है, तो श्राँधी नारदके खानदानी एवं मन्थराके भाईबहन हैं, ऐसा ही उसे चारों ओर फैलाकर कृतार्थ होती है, दोनोंमें