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किरण ३]
सासादन सम्यक्त्वके सम्बन्ध में शासन-भेद
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श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञि पंचेन्द्रिय-तथा दो (१)श्वेताम्बर मागम सासादन सम्यग्दृष्टियोंका एकेसंझी-अपर्याप्त और पर्याप्त--कुल सात जीवस्थान है। न्द्रियों में होना था नहीं मानते, किन्तु विक लेन्द्रियों और
यही नहीं किन्तु इस कर्मग्रंथके कर्ताने एक गाथामें असंजी पंचेन्द्रियों में उनका होना मानते हैं। यह भी प्रकट कर दिया है कि वे कौन कौनसी बातें हैं जो (२) गोम्मटसार कर्मकाण्ड और श्वेताम्बर कर्म ग्रंथ प्रागम सम्मत होने पर भी उक्त कर्म ग्रंथमें स्वीकार नहीं पृथिवीकायिक, जलकायिक और वनस्पति-कायिक बादरकी गयीं
निवृस्थपर्याप्तक एकेन्द्रियों तथा विकलेन्द्रियों और असंही "मासणभावे नाणं विधगाहारगे उरलमिस्सं। पंचेन्द्रियों में सासादन गुणस्थान मानते हैं। नेगिदिसु सासाणो नेहागियं सुयमयं पि ॥ ४६॥ (३) अमितगति कृत पंचसंग्रहमें तेज और वायु
अर्थात सासादन अवस्थामें सम्यग्ज्ञान, वैक्रिय शरीर कायिक जीवोंको छोड शेष सातों अपर्याप्त जीवसमासोंमें तथा पाहारक शरीर बनानेके समय औदारिकमिश्रकाययोग सासादन गुणस्थान माना है जिससे सूक्ष्म पृथिवी, अप
और एकेन्द्रिय जीवोंमें सासादन गुणस्थानका अभाव, ये वनस्पति कायिक जीमें भी सासादन सम्यक्त्वकी प्राप्तिका तीन बातें यद्यपि मागम सम्मत हैं तथापि यहाँ उनका प्रसंग पाता है। शधिकार नहीं स्वीकार किया गया।
(४) गोम्मटसार जीवकागड तथा पखंडागम जीवश्वेताम्बर पंचसंग्रह
स्थानके समरूपणादि अधिकारोंमें समस्त एकेन्द्रिय, विकपंचसंग्रहके प्रथम द्वारकी गाथा २८ में भी एकेन्द्रिय लेन्द्रिय और असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीवोंमें केवल एक ही गुणऔर द्वीन्द्रिय श्रादि विकलेन्द्रिय जीयों में दो गुणस्थान स्थानका विधान है, सासादन सम्यक्त्वका नहीं। स्वीकार किये गये हैं
(५) सर्वार्थसिद्धिकार एकेन्द्रियों में सासादन सम्यक्त्वी जीव 'सुरनारएसु चत्तारि पंच तिरिएसु चोहम मणूसे। के उत्पन्न होने वाले मतका उल्लेख करते हैं।। इगि-विगलेसु जुयलं मन्याणि परिणदिसु हति ।। (६) षटखंडागम जीवहाणकी गति-आगति लिकामें
अर्थात्--देव और नारकोंमें प्रथम चार गुणस्थान होते लियंच, मनुष्य और देवगतिके सामादन सम्यक्तियोंका बादर हैं, तियंचों में प्रथम पाँच मनुष्यों में चौदहों। एकेन्द्रिय और पृथिनीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक प्रत्येक विकलेन्द्रियों में दो-मिथ्यारष्टि और सामादन-तथा पंचे- शरीर एकेन्द्रिय जीवों में उत्पन होनेका विधान तथा न्द्रियों में सभी गुणस्थान होते हैं।' किन्तु भागेकी गयामें विकलेन्द्रिय और असंज्ञीपंचेन्द्रियों में उत्पन्न होनेका यह स्पष्ट कर दिया गया है कि एकेन्द्रियों में वायु और तेज निषेध करते है। कायिक जीवों में सासादन गुणस्थान नहीं होता
(७) धवलाकार वीरसेनस्वामी एक स्थानपर एकेसम्वेसु वि मिकछो वाउ-तेउ-सुहमतिगं पमोत्तूणं। न्द्रियों में सासादन सम्यक्स्वी के उत्पन्न होने सम्बन्धी मत सासायगणो उ सम्मो मन्निदुगे सेस सन्निम्मि || || का सूत्रत्व स्वीकार कर उसको भी माननेका उपदेश देते
अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थान तो सभी जीव निकायों में हैं। किन्तु दूसरे स्थल पर उस मतका निषेध करते है। वे होता है और सासादन गुणस्थान वायुकायिक और तेज- समस्त एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय और असंज्ञिपंचेन्द्रिय जीवों कायिक तथा पृथ्वी, जल और वनस्पति इन तीन कार्यों में एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही स्वीकार करते हैं। हां, सूचम शरीरी जीवोंको छोद शेष सबमें होता है। इत्यादि सासादन जीवोंका एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्धात करना यह व्यवस्था गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी व्यवस्थासे ठीक मानते हैं, किन्तु प्रायुषीण होनेके साथ ही वह गुणस्थान मिलती है।
छुट जानेसे उन जीवोंमें सासादन भावको नहीं मानते। मत-मतान्तरोंका मथितार्थ
और इसी युक्तिसे वे सस्प्ररूपणा, ध्यप्रमाणादि व गतिउपर्युक्त सब मत-मतान्तरोंका मथितार्थ यह निकलता भागति लिकाके सूत्रोंमें संगति बैठाते हैं।
जहां इस प्रकारका शासन-भेव हो वहां, वीरसेन