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किरण ४] .
मृत्यु-महोत्सव
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गान गाता है और अनेको अतिथीका श्रादर-सत्कार कर 'मेरा-तेरा' करते-करते किया जाय, उसका तो यही मतलब श्रग्नेको धन्य और सौभाग्यशाली समझता है।
है कि जब हम यह अनुभव करलें कि हमारा जीवन समाज, लेकिन मृत्युका वास्तविक त, उद्दश्य एवं पेपन धर्म, देश और स्वयं अपने लिए भी निरुपयोगी है, धीरे-धीरे जानने के कारण है। श्राज असंख्य मनुष्योमं भ्रान्त विचार संभारके वायुमण्डलम विलग होते-होते शरीरसे भी ममत्व धाग अपना प्रभुत्व प्रस्थागित किए बैठा है। यद्यपि मृत्युका त्यागकर ज्ञान पूर्वक मृत्युको प्राम होना। वास्तविक एवं श्रान्तम अर्थ शरीरस चेतना शक्तिकाविलग जबरदस्ती, बनपूर्वक या और किसी भयानक कारणके को जाना है, तथा यह अवस्था एक ही प्रकारसे प्राप्त की वशीभूत होकर जीवन त्याग के प्रसङ्गको उपस्थित कर, जाना हा, इसमें सन्देश है भिन्न-भिन्न विचारकोंने भावी सुख मम्माधमणका दोंग रचकर, सारे पदार्थोसे पर रहकर की कल्पनाके श्राधार पर भिन्न-भिन्न प्रकारसे देह त्यागनेके मृत्युको प्राप्त होना समाधमरण मी नहीं, उसकी हत्या मार्ग उपस्थित किए हैं, लेकिन फिर भी यह निश्चितरूपम करना अवश्य है और प्रात्मघात करना तो वह है की। नहीं कहा जा सका कि उन विचारकों के ममस्त मृत्यु द्वार ममाधिमा में त्याग. तास्था और विश्व एवं प्रात्मकल्याण सर्वथा उपादेय एनं उपयुक्त अथवा ग्राइणीय है। तब भी, की अत्यन्त श्रेष्ठ भावनाएँ छिपी हुई हैं। समाधिमगणक पथ या निश्चित रूपेण स्पष्ट नासे कहा जा सकता है कि सभी को स्वीकृत कर हम अनावश्यक जीवनका लोभ और मोड़ विचारकोंका मन्देश यही रहा है कि मृत्युके अवसर पर तथा दम्भ एवं श्रहंकार श्रादिसे त्याग पत्र ले धर्मके हमारे भावों में मलीनता. ममता, मोह और रागद्वेषादिक। सर्वथा श्रादर्श में विलीन होनेकी महत्वाकांक्षा रम्यते हैं। अभाव वांछनीय है। किमीकी इच्छाको रख मृत्युको प्रात हिन्दी भाषा और साहित्यका यह अहोभाग्यही ममझहोगा हेय एवं निद्य है-कल्याण एवं उद्धारका बाधक है। ना चाहिए कि 'समाधिमरण' के महत्व, उपयोग और संक्लेशन परिणामोसे मृत्युको प्राप्त होना अपने प्रारको श्रादर्शको प्रकट करने के लिए दो रचनाएं मरल, साम और धोका देना ममझा गया है, और वह वास्तव में ठीक भी है। मूदुलरूपमें उपलब्ध हैं। जिसमें एक है कविवर द्याननगय
उन कई प्रकारको मृत्युमें 'समाधिमरण' का भी एक जीकी और दूसरी है कवियर सूरचन्दजी की। महत्वपूर्ण अथवा सर्वोच्च स्थान है। समाधिमरण के प्रावि- जैनसाजमें इन दोनोंही रचनाओं को अत्यन्त श्रादरकी कर्ताका (यह नो मालूम नहीं कि उसका आविष्कर्ता कौन दृष्टिसे देखा जाता है और यदि समय मिला और उपयुक्त है, जन लोग यह अवश्य कहते हैं कि उसके आविष्कर्ता स्थान रहा तो प्रत्येक मृत्यु शय्या पर पड़े हुए मनुष्यको ये प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव जी थे। यह कहना है कि सनाई भी जाना है। जिस समय हम यह जान ले कि हमारी या हमारे कुटुम्बाकी लेकिन अत्यन्त दुग्व और अफमोममाय कहना पड़ता मृत्यु अब अति निकट है, उसे जीवनसे. संसारम. कुटुम्बस है कि बीच में इन पचनाश्रीको फूटी ऑम्वों भी नहीं देखा अहारसे, वस्त्रोंसे निर्मोही कर दिया जाय और मुत्युकी महा-जाता । अंतिम समय ही सुनाई जाने के कारण देचारा गेगी नताका सदुपयोग किया जाप ताकि उसके परिणाम उत्तरोत्तर तो क्या ममझता होगा परन्तु स्वयं सुनाने वाले महानुभाव निर्मल जल की भांति विकार हीन सुकुमार कोमल हो और भी उनके रहस्यको समझ नहीं सकते। भावी जीवन संकटापन्न न हो। हम जीवन भर चाहे जितने हमें क्या पता हमारी मृत्यु किस दिनसे गस्ता देव पाप करें, अत्याचार करे, अन्याय करें और व्यभिचारी रहे रही.हमें तो यही सोच समझकर प्रत्येक कार्यों में प्रवृत हो परन्तु यदि हमारा मग्ण समाधि-पूर्वक होगा, तो मृत्यु होना चाहिए कि हमारे सिरपर मंडरा रही है-न जाने की विकरालना शान्तिमें, ऋरता मृदुताम, और भयानकता का प्राकर गला घोटदे। अतएव. हमारा यह प्रथम और महानतामें परिवर्तित हो जाएगी।
प्रमुम्ब कर्तव्य होना चाहिए कि हम मृत्युको अपना मरवा,अपना समाधिमराका यह अर्थ कदापि नहीं कि अपने जीवन मिर, अपना सहोदर मममें और उसका श्रादर साकार करे का अस्तितका त्याग मूर्खना वश या मोह वश अथवा ताकि वह अपने पिकगल एवं भयानक रूपमें उपस्थितहोकर