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अनेकान्त
[वर्ष ६
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पाहता मैं अस्तके विश्वासकी नी हिलाकर, अभी मुन्दी है मेरी मांखें. पर मैं सूर्य देखभाया है, सोलना उनकी अगतिमूलक कलापोल जर्जर !" माज पड़ी है कडिया पर मैं, कभी भुवनभरमै छाया हूँ।
इस युगके कवियांने श्राज अपनी वीणामें जो नये स्वर उस अबाध चातुरता को कपि, तुम फिर व जगादो!" भरे हैं, वे मल्हारके नहीं भैरवके है
'अन्धकारमें श्रालोक' फैलानेवाला यह अाजका कवि “गा एक बार, हा एक बार "
बड़ा सूक्ष्मदर्शी है । वैज्ञानिकताकी तेज रोशनीमें यह समय 'अनुभूतिगीत' के गायक भावुक कवि श्री हर्षितके इस के बढ़ते प्रगाहकी छानबीन करता है। समाज के दकियागीत में जैसे श्राजके समस्त काव्यको प्रात्मा चीत्कारकर उठी:- नूसी विधान, धर्मशास्त्रकी पालिश और परम्परा किसीमें यह "वह गीत सखे, सुनकर जिसको पाषाण कर चीत्कार! नहीं उलझता । गरीबको देखकर, उनके लिये यह दयाकी
पुकार नहीं करता, उनकी गरीबी के मूलकारणों की यह खोज विधिकृत विधान मौ' पुण्य-पाप,
निकालता है और समाजके शोषकोंको श्री हरिकृष्ण प्रेमीके यह दानव-जीला, शक्ति सकला,
शब्दोंमें ललकारकर कहता हैमायाका चलता चक्र विषम,
"तुम हंसते हो, इठलाते हो, लव-उदय, पार हो जाये जल,
टुकडे देकर मुसकाते हो, टूट्टी बीणामें वह स्वर भर, हिल उडे विश्वका चित्रकार !"
तुम उपकारी कहलाते हो, 'मायाके इस विषमचक्र' के विरुद्ध श्राज संसारमें जो
देकर हमें, हमारा ही लूटा धन ! भयंकर युद्ध होरहा है, वह क्षुद्र है, वास्तविक युद्ध नो
थे घायल दिल महाप्रलयके वाहन !!" हमारे मन में होरहा है, जिसके लिये कवि सर्वदानन्द वर्माक श्री भगवतीचरण वर्मा हिन्दी कवियों में इन 'घायल शब्दों में हमारा अणु अणु पुकार रहा है
विजोंके बहुत बड़े वकील है। उनका 'मानव' पढ़नेकी "फिरसे महलों में भाज पुराने जौहरकी ज्वाला जागे, चीज है, सुननेकी चीज़ है, सुमानेकी चीज़ है। फिरसे रख-थलमें जानेको, सुत मासे वर भिक्षा मांगे, यह तो हुश्रा हिन्दी कवियोकी वर्तमान प्रवृत्तिका एक फिरसे वधुएं निज पतियोंके शिरपर करदें मचत-रोली, चित्र, अब देखें उस लेखका दूसरा अंश-हिन्दीके जैन चिरसे घर से निकल पर, मरमिटने वाखोकी रोली" कवियोंका कार्य ! साहित्यमें जैन अजैनकी दीवारें खड़ी कर
और इस टोलीमें कैसे कैसे वार है, इसका पता ताण्डव के देखना, अनुचित है, पर जब यह सामने आ गया, तो के गायक कवि 'दिनकर' से पूछिये
मुझे उसपर कुछ कहना है। जैन कवियोंकी जो कविताएँ उस "शिर देकर सौदा लेते हैं, जिन्हें प्रेमका रंग चदा लेखमें उद्धृत की गई है, उनकी कलात्मक असाधारणता फीका रंग रहा, तो घर तक्या गैरिक परिधान करे !
मैं नहीं मानता-यों आप किसीको भी कालिदाससे श्रेष्ठ उस पदकी जंजीर गूंजती,होनीरव सुनसाम जहां, और शेक्सपीयरसे आगे कह सकते हैं, आपको कोई सुमना हो, तो तज वसन्त, निजको पहले वीराम करे !" रोकेगा नहीं।
अपने 'वसन्त' को स्वयं वीरान करनेवाले ये लोग साहित्यके इस नवजागरण काल में जैन समाजने एक अन्धेरी अमावसमें आलोक फैलानेका श्रेय लूटते है। कवि __ भी ऐसा कवि उत्पन्न नहीं किया, जो भारत के प्रतिनिधि'अज्ञेय' ने जैसे सारे राष्ट्रकी आत्मामें बैठकर स्वयं अपनेसे कवियोंमें स्थान पा सके ! क्यों ? यह जैन अजैनका प्रश्न ही कहा है
नहीं, भारतीय समाजशास्त्रका एक गम्भीर प्रश्न है। मैं इस "एक पारस अन्धकारमें फिर पाखोक दिखादी! पर विस्तारसे दूसरे लेखमें लिखूगा।