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नयोंका विश्लेषण
(लेखक-श्री ५० वंशीधर व्याकरणाचार्य )
[गत वरणसे आगे] (४) प्रमाण-नय-विषयक शंका-समाधान
एक अंश है" ऐसा अनुभव हमें नहीं होना चाहिये, लेकिन शंका-अनेक धर्मोंकी पिंड स्वरूप वस्तुको ग्रहण होता जरूर है इस लिये यही मानना ठीक है कि नेत्रोंसे करने वान्ता प्रमाण माना गया है लेकिन इन्द्रियोंप होने हमें वस्तुके रूपका ही ज्ञान होता है समस्त धर्मोंकी पिंडवाला मतिज्ञानरूप पदार्थ ज्ञान अनेक धर्मोकी पिंड- स्वरूप वस्तुका नहीं। स्वरूप वस्तुका ग्राहक नहीं होता है - नेत्राय हमें रूप- ममाधान "रूप अथवा रस प्रादि वस्तुके अंश या धर्म विशिष्ट ही वस्तुका ज्ञान होता है उस वस्तुमै रहने वाले है' इस प्रकारका ज्ञान हमें मेग्र, रमना आदि इन्द्रियों द्वारा रसादि धर्म इस ज्ञानके विषय नहीं होते है। इस लिये वस्तुका रूपविशिष्ट, रसविशिष्टादि भिक्षरतरहका ज्ञान होनेके प्रमाणका उल्लिखित लक्षण मत्तिज्ञानमें घटित न होने के बाद "नेत्री द्वारा हमें वस्तुका रूपमुखेन ज्ञान होता है रसाकारण मतिज्ञानको प्रमाण नहीं माना जा सकता है बल्कि दिमुखेन नहीं," "श्सनाके द्वारा हमें वस्तुका रसमुखेन ज्ञान वस्तुके एक अंशको विषय करने वाले नयका लक्षण घटित होता है रूपादिमुखेन नहीं" इस प्रकारके धन्वय व्यतिरेक होने के कारण इसको नय मानना ही ठीक है। इसी प्रकार का ज्ञान होने पर अनुमानज्ञान द्वारा हुश्रा करता है दुसरी रसना आदि इन्द्रियों द्वारा होनेवाले रसादि ज्ञानोंको अथवा दूसरे व्यक्तियों द्वारा दिये गये "रूप वस्तुका अंश प्रमाण मानने में भी यही प्रापत्ति उपस्थित होनी है। या धर्म है" इस प्रकारके उपदेशसे होने वाले शब्दार्थज्ञान
समाधान-नेत्रोंसे हमें वस्तुक अंशभूत रूपका ज्ञान रूप श्रुतज्ञान द्वारा हुआ करता है. नेत्रों द्वारा नहीं। नहीं होता है बल्कि रूपमुखेन वस्तुका ही ज्ञान होता है। शंका-"रूप या रसादि वस्तुके अंश या धर्म" वस्तु चंकि रूप, रस प्रादि धर्मोंको छोड़ कर कोई स्वतंत्र इस प्रकारका ज्ञान यदि अनुमान द्वारा होता है तो अनुमान स्वरूप वाली नहीं है इस लिये वस्तुस्वरूप सभी धर्मोंका भी तो मतिज्ञानका एक भेद है इस लिये अनुमानरूप हमें रूपमुखेन ज्ञान हो जाया करता है-ऐसा समझना मतिज्ञान वस्तुके अंशका ग्राहक होने के सबब प्रमाणकोटिमें चाहिये। दूसरी बात यह है कि यदि हमें नेत्रों द्वारा सिर्फ नहीं गिना जाकर नयकोटिमें ही गिना जाना चाहिये, ऐसी वस्तुके अंश या धर्मस्वरूप रूपका ही ज्ञान होता है तो उस हालतमें मतिज्ञानको प्रमाण माननेके बारेमें पूर्वोक्तभापति के फलस्वरूप होने वाली हमारी ग्रहण, त्याग और माध्य- जैसीकी तेसी बनी रहती। सध्यरूप प्रवृत्ति सिर्फ वस्तुके अंशभूत रूपमें होना चाहिये समाधान-नेत्रों द्वारा हमें रूपमुखेन वस्तुका ज्ञान रूपविशिष्ट वस्तुमें नहीं, लेकिन नेत्रों द्वारा ज्ञान होने पर हो जाने पर उन दोनोंमें रहने वाले अवयवावयवीभाव होने वाली हमारी उल्लिखित प्रवृत्ति रूपविशिष्ट वस्तुमें ही सम्बन्धका ज्ञान अनुमान द्वारा हुश्रा करता है यह संबन्ध हुश्रा करती है इस लिये यही मानना ठीक है कि हमें नेत्रों वस्तुका अवयव नहीं, बल्कि स्वतंत्र ज्ञानका विषयभूत स्वद्वारा रूपमुखेन सभी धर्मोंकी पिंडस्वरूप वस्तुका ही ज्ञान तंत्र पदार्थ है इस लिये यह अनुमानज्ञान भी वस्तुके अंश हुमा करता है केवल वस्तुके अंशभूत रूपका नहीं। यही को न ग्रहण करके स्वतंत्र वस्तुको ही ग्रहण करता है प्रक्रिया दूसरे ऐन्द्रियिक ज्ञानों में भी समझना चाहिये। अर्थात इस ज्ञानका विषय रूप और उसका प्राधार वस्तु
शंका-यदि हमें नेत्रों द्वारा रूपमुखेन समस्त धोकी दोनोंसे स्वतंत्र है; कारण कि रूप और उसका आधारभूत पिंडस्वरूप वस्तुका ज्ञान हुमा करता है तो "रूप वस्तुका वस्तुका ज्ञान तो हमें नेत्रों द्वारा पहिले ही हो जाता है