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जैनधर्मकी एक झलक (ले०-पं० सुमेरचंद्र दिवाकर पी० ए० एल०-ल. बी. शास्त्री, न्यायतीर्थ)
[गत किरणसे आगे मोक्षमार्गस्थ नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृताम्। जैन परंपरामें नहीं कहा गया है, कि जिन पदार्थोंके स्वरूप ज्ञातारं विश्वतत्वानां, वंदे तद्गुणलब्धये ॥ का प्रदर्शक यह है, वे स्वयं दो दिनके तमाशे की चीज नहीं
'मैं मोक्षमार के नेता-संसारकै दुःखोये बचा है, बल्कि त्रिकाल प्रवाधित सत्यरूप हैं। जब वस्तु कर सच सबके मार्गको बताने वाले कर्मरूपी पर्वतोंका अनादि अनंत है तथा उसका स्वरूप प्रकाशक तत्वज्ञान विनाश करने वाले-पाएमाका पतन करनेवाली कर्मराशि
भी उसके समान होना चाहिये। को चूर्ण करने वाले, संपूर्ण तत्वों के ज्ञाता-सर्वज्ञ तथा
अनुभव यह बताता है कि जो इमरीके मामे कौटे सबागीण सत्यके दृष्टा को, उनके गुणों की प्राप्तिके लिए,
बौनेका प्रयत्न करता है वह शीघ्र नहीं तो कालान्तरमें
स्वयं कोंटोंसे दुःख पाता है। प्रकृतिके इन अटल नियमोंके भयाम करता।
अनुसार तीर्थंकरोंने यह ताव-देशना को-यदि तुम चाहते इनसे पाराधनाके प्रादर्श तथा भ्येयका चित्र मेत्रों के
हो कि तुमको कोई भी किसी भी तरहका कष्ट न दे, तो सामने खड़ा हो जाता है। पारमाके विकास या हासका उत्तरदायित्व उसके भावों
सुमको कमी किसीको कष्ट देनेका विचार तक न करना पर है। उपरोक्त वर्णित मादर्शकी धाराधनाम्मे--गुण ।
चाहिए । विश्व मैत्रीके पाठको पढ़ने वालेकी प्रकृति देवी चिंतनसे उज्वल भाव होते हैं, इससे प्रारंभिक साधनके
अर्चना करती है, और प्रकृतिकी छोटी बड़ी वस्तुएँ उसकी लिए यह बहुत भावश्यक अंग है। यह पाराधना सच्ची
भारमाको पीदा नहीं देती। वह छोटे बड़े सभी जीवधारियों वीर-पूजा (Hero worsip) है। यह तपरस्तीस पर करुणाका भाव धारण करता है। इस विषयमें महर्षि विस्कुल जुदी है। इस भाराधनामें दीनताकी भावना नहीं
अमितगतिका यह पच बडा मार्मिक है, जिसमें जैनधर्मका रहती है। यदि कोई भावना की जाती है, तो यह कि बह ,
एक महत्वपूर्ण तथा शांतिदायक संदेश भरा हुमा है-- रत्नत्रयका प्रकाश मारमामें उत्पन्न हो, जो मुक्ति-स्था
सत्वेषु मैत्री, गुणिषु प्रमोद, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं भीनताका प्रतितीय साधनादेखिए भविौलत. माध्यस्थ्य-भाचं, विपरीतवृत्ती, सदा ममात्मा विदधात देव! रामजी कितनी भावपूर्ण स्तुति करते हैं---
प्रभो ! मेरी भाल्मा इस रूप होजाब कि मैं प्राणीमात्र
के प्रति मैत्रीभाव रखू, गुणी पुरुषोंको देखकर मेरा हृदय "आतमके श्रहित विषय कषाय, इनमें मेरी परणति न जाय
भानंदित हो जाय, पीड़ित-दुखी जीवोंको देखकर मेरा मैं रहूँ आपमें आप लीन, त्यों करो, होहुँ ज्यों निजाधीन
हृदय करुणापूर्ण हो जाय, जो मुमसे विपरीत वृत्ति वालेमेरेन चाह कछु और ईश, रत्नत्रय निधि दीजेमुनीश।...."
शत्रुता धारण करने वाले हों उनके प्रति मेरे उदयमें माभ्यजैनधर्म किसी व्यक्तिके कथन या पुस्तक चमत्कार या
स्थ्य भाव हो-मैं उनकी भोर द्वेष या घृणाकी रष्टि न रखें। म्यकि विशेषपर निर्भर नहीं है। यह तो सत्यके प्रखंड
माज यह विश्वमैत्रीकी शिक्षा विश्वमें न्यास हो तो भंडार विश्वका धर्म है,यह प्रकृतिके पन्ने परेमें लिया हुभा
__ एक प्रकारसे यहीं स्वर्ग उतर पाए । क्रोध, स्वार्थ, खालच, है। अनुभव इसका भाधार है। युक्तिवाद इसकीमात्मा है।
अभिमान मादिके कारण प्राणियोंकी प्रवृत्ति इस मार्गकी इस धर्मको, काखकी मर्यावाके भीतर कैद. इसी कारण, और नहीं होती. सीसे मुसीवतका नारकीय जीवन १ देखो तत्वार्थसूत्रका आदि श्लोक ।
बिताना पचता है।