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किरण ३]
सासाइन सम्यक्त्के सम्बन्ध में शासन-भेद
यहाँ प्राचार्य वीरसेनने सासादन सम्पपस्वी एफेन्द्रियों के सूत्रोंक विरुव है इसलिये ग्रहण नहीं करना में उत्पच होने और न होनेका प्रतिपादन करने वाले दोनों चाहिये। मतों में समानरूपसे सूत्रस्व स्वीकार किया है, और यह इस प्रकरण में भवनाकारने उतने जोरसे एकान्द्रया आदेश दिया है कि उनमें विवेचक उपवेशप्रभावमें दोनों में सासावन की उत्पत्ति मानने वाले मतका निषेध किया है मतोंका संग्रह किया जाना भावश्यक है। पर वीरसेनस्थामीने जितने जोरसे कि उन्होंने पहले दोनों मोंका संग्रह करने अपनी यह दोनोंमतों पर समानरष्टि स्थिर नहीं रखी जैसा का उपदेश दिया था। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि स्पशन प्ररूपणाके सूत्र की टीकासे स्पष्ट होजाता है। कि यहाँ उन्हें सासादनोंके स्पर्शन क्षेत्रको बाहरा प्रमाण वहां प्रभोत्तर इस प्रकार हुए है
मानने और फिर भी एकेन्द्रयों में एक ही गुणस्थान स्वी"जदि सासरणा एइंदिएसु उपजनंति, तो तत्थ दो कार करनेकी एक युक्ति मिल गयी। उन्होंने इन विरोधी गुणटाणापि होति । ण च एवं, संताणियोगदारे मतोंका सामञ्जस्य इस प्रकार बैठा लिया कि सासादन तत्थ एकमिच्छादिद्विगुणप्पदुप्णयणादो, दब्वाणि- जीव अपने मरणकालसे पूर्व माटु बन्धक बलसे एकेन्द्रियों भोगद्दारेवितत्थएगगुणट्ठारपदव्वस्स पमाणपरूवणादो में मारणान्तिक समुद्घात तो करते हैं और इस प्रकार उन च ? को एवं भणदि जधा सासणा एईदिएसुप्पजति का स्पर्शन क्षेत्र बारह राव हो सकता है। पर वे ही जीव त्ति । किंतु ते तत्थ मारणंतियं मेल्लंति त्ति अम्हा मरते समय सासावन गुण स्थानसे च्युत होकर मिथ्याष्टि बिच्छयो, ण पुरण ते तत्थ उज्जति त्ति, छिण्णाउ- हो जाते हैं, और इसलिये एकेन्द्रियोंकी अपर्याप्त अवस्थामें अकाले तत्थ सासणगुणाणुवलं भादो। xxx मी सासादन गुण प्रकट नहीं होता, केवल मिथ्यारष्टि गुण जे पुण देवसामणा एइंदिएसुप्पजति त्ति भगति, ते- ही रहता है। मागे सर्वत्र धवलाकारने इसीयुक्तिसे निर्वाह सिमभिप्पापण बारह-चोइसभागा देसूणा उववाद- किया है। गति-प्रागति चूलिकाके उपर्युक्त सूत्रोंकी भी फोसणं होदि । एवं पि वक्खाणं संत-दवसुतविरुद्धं उन्होंने इसी प्रकार उपपत्ति बैठाई है कि घायु छिन होने ति ण घेत्तव्वं"।
के समय ही सासादन गुणस्थान छुट जाता है। उदाहरणार्थशंका-यदि सासादन जीव एकेन्द्रियों में उत्पन होते जदि एइंदिएस सासणसम्माडी उपचदि तो है तो पकेन्द्रियोंमें दो गुणस्थान होने चाहिये । पर ऐसा पुढवीकायादिसु दो गुणहारणाणि होति तिचे या, तो नहीं क्योंकि सनरूपणा अनुयोगबारमें एकेन्द्रिों में हिरणाउनपढमसमर सासणगुणविणासादो। .. एकमात्र मिथ्यारधि गुणस्थानका प्रतिपादन किया गया है,
(सूत्र १२१ टीका) और द्रव्यानुयोगद्वारमें भी एकेन्द्रियों में एक गुणस्थान सम्ब- जदि एईदिएसु सासणर्मम्माइट्ठी उपज्जति तो न्धी द्रव्य का ही प्रमाण बतलाया गया है।
एईदिएसु दोहि गुणहाणाह होदामाद ? होदु, चे समाधान-कौन ऐसा कहता है कि सासावन जीव ण, एइंदियसासपदव्यस्स दयाणियोगद्दारे पमाणएकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं। किन्तु सासादन जीव एके रूवणाभावा ? एस्थ परिहारो बुच्चदे। तं जहा-सासन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करते है, यह हमारा गसम्माइट्ठी एइंदिण्सु उप्पज्जमाणा जेण अपणो श्रानिश्चय है। पर वे वहां उत्पन नहीं होते, क्योंकि आयु उअस्स चरिमसमए सासणपरिणामेण सहिया होदूण वित होने के काल में ही उनका सालावन गुणस्थान नष्ट हो तदो उपरिमसमए मिच्छत्तं परिवज्जति तेण एददिजाता है और वह भायु सिम होनेके पश्चात् काबमें पाया एसुण दोरिण गुणहाणाणाणि, मिच्छाद्विगुणहानहीं जाता।xxx पर जो ऐसा कहते है कि सासादन गमेकं चेव ।।
(सूत्र १५३ टीका) सम्यग्रष्टिदेव एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं उनके अभिप्राय
श्वेताम्बर आगम से सामावन जीवोंका उपपावस्पर्शन बारह रा प्रमाण भवताम्बर ग्रंथों में स.सादन गुणस्थानकी प्रस्तुत होता है। किन्तु यह व्याख्यान सबसपा और यमाय विषय सम्बन्धीच्या व्यवस्था यह भी देख लेना चाहिए ।